सरकार हर साल शिक्षा के क्षेत्र में सुधार और क्रांति लाने के बड़े-बड़े दावे करती है, लेकिन जमीनी सच्चाई आज भी उतनी ही चिंताजनक है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार ने 3 मार्च 2025 को राज्य विधानसभा में 3 लाख 17 हजार करोड़ रुपये का बजट पेश किया था। इसमें शिक्षा विभाग के लिए 60,964.87 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया था। लेकिन इस बजट का कितना उपयोग हो रहा है, यह सवाल अब भी अनुत्तरित है।
पटना जिले के मसौढ़ी प्रखंड के नूरा पंचायत स्थित उत्क्रमित मध्य विद्यालय नहवां की हालत सरकार के दावों की पोल खोल देती है। यहां स्कूल की दो मंजिला इमारत तो बन गई है, लेकिन शौचालय नहीं बना। नतीजतन, छात्रों के साथ-साथ शिक्षिकाओं को रोजाना शर्म और असुविधा झेलनी पड़ती है।
शिक्षिकाओं का कहना है कि शौचालय की अनुपलब्धता के कारण वे स्कूल आने से पहले कम खाना खाती हैं और कम पानी पीती हैं, ताकि उन्हें दिन में शौचालय न जाना पड़े। कभी-कभी तो उन्हें आस-पड़ोस के घरों में जाकर शौचालय का उपयोग करना पड़ता है, जिससे काफी शर्मिंदगी महसूस होती है।
विद्यालय की शिक्षिका प्रीति कुमारी बताती हैं, “मैंने जब से यहां ज्वाइन किया है, तब से स्कूल में शौचालय का नामोनिशान नहीं है। कई बार मजबूर होकर छुट्टी लेनी पड़ती है। लड़कियों की उपस्थिति भी घट रही है, क्योंकि वे इस असुविधा से बचना चाहती हैं।”
विद्यालय में लगभग 150 छात्र-छात्राएं नामांकित हैं, जिनमें से 80 से 90 लड़कियां नियमित आती हैं। विद्यालय में सात महिला शिक्षिकाएं कार्यरत हैं, लेकिन सुविधा के नाम पर उन्हें कुछ नहीं मिला है।
स्थानीय लोगों ने बताया कि यह विद्यालय पहले गांव के अंदर था, लेकिन उत्क्रमित होने के बाद साल 2019 में इसका नया भवन गांव के बाहर बनाया गया। भवन बन गया, लेकिन शौचालय निर्माण की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
इस गंभीर स्थिति पर मसौढ़ी के प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी राजेंद्र ठाकुर ने कहा, “विद्यालय में शौचालय नहीं होने की सूचना मिली है। इस दिशा में पहल की जा रही है, ताकि जल्द से जल्द शौचालय बनवाया जा सके और छात्र-छात्राओं व शिक्षकों को राहत मिले।”
बिहार के सरकारी स्कूलों की वास्तविक तस्वीर
बिहार में कुल 81,000 सरकारी स्कूल हैं, जिन्हें तीन श्रेणियों में बांटा गया है —
1. प्राथमिक विद्यालय (कक्षा 1–5) : लगभग 43,000
2. मध्य विद्यालय (कक्षा 1–8) : करीब 29,000
3. माध्यमिक और उच्च माध्यमिक विद्यालय (कक्षा 9–12) : लगभग 9,360
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 96.4 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय की सुविधा है, लेकिन उनमें से केवल 94.3 प्रतिशत शौचालय ही कार्यरत हैं। यानी हजारों स्कूल आज भी ऐसे हैं, जहां बच्चों और शिक्षकों को बुनियादी सुविधाओं का अभाव झेलना पड़ता है।
इसके अलावा, 81.6% स्कूलों में हाथ धोने की सुविधा है। जबकि 94.3% स्कूल को-एड (सहशिक्षा) हैं, यानी वहां लड़के और लड़कियां दोनों साथ पढ़ते हैं। ऐसे में शौचालय की कमी से सबसे अधिक दिक्कत लड़कियों को होती है, जो अक्सर स्कूल आना छोड़ देती हैं।
अब भी हजारों स्कूल भवनहीन
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, जून 2024 तक बिहार में 4,918 सरकारी स्कूल ऐसे थे जिनके पास अपनी बिल्डिंग नहीं थी। ये विद्यालय या तो किसी अन्य स्कूल की इमारत में चल रहे हैं, या सुबह-शाम के दो सत्रों में बच्चों को बिठाकर पढ़ाया जा रहा है।
कई जगहों पर एक ही कमरे में तीन-तीन कक्षाएं संचालित हो रही हैं। ऐसे हालात में “शिक्षा में क्रांति” का सरकारी दावा खोखला साबित होता दिखता है।
बिहार में छात्र-शिक्षक अनुपात 32:1 है, जो राष्ट्रीय औसत 35:1 से बेहतर माना जाता है। लेकिन अगर बुनियादी ढांचा ही अधूरा रहे, तो आंकड़ों की इस “बेहतरता” का कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता।
निष्कर्ष
बिहार सरकार ने शिक्षा के लिए भले ही 60 हजार करोड़ रुपये से अधिक का बजट रखा हो, लेकिन जमीन पर न तो शौचालय हैं, न भवन, न पर्याप्त सुविधा। नहवां जैसे सैकड़ों विद्यालय इस विडंबना के प्रतीक हैं, जहां महिला शिक्षक और छात्राएं “शिक्षा की इज्जत” बचाने के लिए खुद की इज्जत और सेहत से समझौता कर रही हैं।
अगर सरकार सचमुच शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाना चाहती है, तो उसे केवल बजट पेश करने से आगे बढ़कर जमीनी स्तर पर सुविधाओं की गारंटी सुनिश्चित करनी होगी — वरना “क्रांति” सिर्फ कागज़ पर ही रह जाएगी।
