भागलपुर स्थित तिलकामांझी विश्वविद्यालय (TMBU) का अस्पताल, जो कभी छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा का केंद्र माना जाता था, आज खुद बदहाली की चपेट में है। विश्वविद्यालय कैंपस में बना यह अस्पताल अब सिर्फ एक इमारत बनकर रह गया है, जहां न इलाज की व्यवस्था है और न ही कोई उम्मीद की किरण दिखाई देती है।

**डॉक्टर और कंपाउंडर भी संविदा पर**
इस समय विश्वविद्यालय अस्पताल में सिर्फ एक डॉक्टर और एक कंपाउंडर कार्यरत हैं—वो भी संविदा यानी अस्थायी नियुक्ति पर। न स्थायी चिकित्सा कर्मचारी हैं, न ही कोई विशेषज्ञ डॉक्टर। विश्वविद्यालय के हजारों छात्र-छात्राएं और सैकड़ों कर्मचारी हैं, लेकिन उनकी प्राथमिक चिकित्सा जरूरतों को पूरा करने वाला कोई भी मजबूत ढांचा मौजूद नहीं है।
**बिना दवा और उपकरण के इलाज कैसे?**
अस्पताल की हालत यह है कि दवाइयों का नामोनिशान नहीं है। जांच के लिए कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। कुछ आधुनिक चिकित्सा उपकरण जरूर उपलब्ध हैं, लेकिन वे वर्षों से धूल फांक रहे हैं। न तो उनका उपयोग हो रहा है और न ही उनकी मरम्मत की कोई कोशिश की गई है। स्थिति यह हो गई है कि एक साधारण बुखार या सिर दर्द की दवा तक अस्पताल में उपलब्ध नहीं है।
**भीषण गर्मी में बढ़ी परेशानी**
भीषण गर्मी में अक्सर छात्र और कर्मचारी बीमार पड़ते हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय अस्पताल से कोई मदद नहीं मिलती। मजबूरन छात्रों को या तो निजी क्लीनिक की महंगी फीस चुकानी पड़ती है या फिर पांच किलोमीटर दूर मायागंज अस्पताल जाना पड़ता है। इस दौरान समय, पैसा और ऊर्जा—तीनों की बर्बादी होती है, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन पूरी तरह से उदासीन बना हुआ है।
**छात्रों का आक्रोश: “मेडिकल शुल्क क्यों लिया जाता है?”**
छात्रों में इस बात को लेकर गहरी नाराजगी है कि नामांकन और सेमेस्टर फीस के साथ विश्वविद्यालय प्रशासन मेडिकल सुविधाओं के नाम पर अलग से शुल्क वसूलता है। छात्रों का कहना है कि जब अस्पताल में न दवा है, न इलाज की सुविधा, न ही डॉक्टर, तो इस अतिरिक्त राशि का क्या औचित्य है?
छात्रसंघ के कुछ प्रतिनिधियों ने यह मुद्दा विश्वविद्यालय प्रशासन के समक्ष उठाया भी है, लेकिन अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई है। छात्रों ने मांग की है कि या तो अस्पताल को पूरी तरह क्रियाशील बनाया जाए, या फिर मेडिकल शुल्क वसूली बंद की जाए।
**विश्वविद्यालय प्रशासन की चुप्पी**
विश्वविद्यालय प्रशासन इस मामले में चुप्पी साधे हुए है। कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिल रहा कि अस्पताल को सुधारने के लिए क्या योजनाएं हैं। न तो किसी नए डॉक्टर की नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू हुई है और न ही उपकरणों की मरम्मत या दवा आपूर्ति को लेकर कोई टेंडर जारी किया गया है। यह स्थिति विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली पर भी सवाल खड़े करती है।
**कहीं बड़ा हादसा न हो जाए…**
स्वास्थ्य सेवाएं किसी भी शैक्षणिक संस्थान के लिए मूलभूत सुविधा होती हैं। अगर किसी छात्र या कर्मचारी को अचानक स्वास्थ्य आपातकाल का सामना करना पड़े, तो यह बीमार अस्पताल किसी काम नहीं आएगा। ऐसी स्थिति में बड़ा हादसा हो सकता है, जिसकी जिम्मेदारी सीधे तौर पर विश्वविद्यालय प्रशासन पर होगी।
**क्या कहता है उच्च शिक्षा विभाग?**
अब सवाल यह उठता है कि क्या राज्य के उच्च शिक्षा विभाग को इस बदहाल अस्पताल की जानकारी है? अगर है, तो अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई? और अगर जानकारी नहीं है, तो विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा स्वास्थ्य सुविधा के नाम पर वसूली गई राशि की जांच क्यों नहीं की जा रही?
**निष्कर्ष: जब अस्पताल ही बीमार हो, तो इलाज कौन करेगा?**
तिलकामांझी विश्वविद्यालय के अस्पताल की मौजूदा हालत पूरे विश्वविद्यालय परिवार के लिए चिंता का विषय है। एक ओर शिक्षा का मंदिर, दूसरी ओर इलाज के नाम पर एक निष्क्रिय ढांचा—यह विरोधाभास जितना अफसोसनाक है, उतना ही शर्मनाक भी। यह सिर्फ एक अस्पताल की नहीं, बल्कि पूरे विश्वविद्यालय तंत्र की बीमारी को उजागर करता है।
अब देखना यह है कि क्या छात्र और कर्मचारियों की आवाज़ प्रशासन और सरकार तक पहुंचेगी, या यह अस्पताल यूं ही धूल फांकता रहेगा—बीमार, लाचार और उपेक्षित।
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