बिहार में लिंगानुपात का गिरता ग्राफ अब केवल एक आंकड़ा नहीं, बल्कि सामाजिक असंतुलन की गंभीर चेतावनी बन चुका है। नागरिक पंजीकरण प्रणाली (CRS) द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट ने इस संकट को और भी स्पष्ट किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, बिहार देश का ऐसा राज्य बन गया है जहां जन्म के समय लिंगानुपात सबसे कम दर्ज किया गया। यहां प्रत्येक 1000 लड़कों पर केवल 891 लड़कियों का जन्म हुआ है। यह आंकड़ा न सिर्फ राष्ट्रीय औसत (943) से बहुत कम है, बल्कि यह बिहार में महिलाओं की घटती सामाजिक स्थिति का संकेत भी देता है।

साल दर साल गिरता लिंगानुपात
रिपोर्ट के अनुसार, पिछले तीन वर्षों में बिहार में लिंगानुपात में लगातार गिरावट देखी गई है।
- साल 2020 में प्रति 1000 लड़कों पर 964 लड़कियां थीं।
- साल 2021 में यह आंकड़ा गिरकर 908 हो गया।
- साल 2022 में यह और भी नीचे आकर 891 तक पहुंच गया।
इन तीन वर्षों में लिंगानुपात में कुल 73 अंकों की गिरावट दर्ज की गई है, जो समाज के लिए बेहद चिंताजनक है। इसका सीधा अर्थ यह है कि अब हर साल लड़कों की तुलना में काफी कम लड़कियां जन्म ले रही हैं।
सामाजिक और सांस्कृतिक कारण
बिहार जैसे सामाजिक रूप से पारंपरिक राज्य में अभी भी बेटा-बेटी में फर्क किया जाता है।
- पारंपरिक सोच: बेटे को वंश चलाने वाला, बुजुर्गों का सहारा और आर्थिक सुरक्षा का स्रोत माना जाता है, जबकि बेटियों को अक्सर बोझ समझा जाता है।
- दहेज प्रथा: विवाह में दहेज की कुप्रथा ने भी बेटियों के जन्म को एक आर्थिक संकट की तरह देखे जाने की प्रवृत्ति को बढ़ाया है।
- शिक्षा और जागरूकता की कमी: ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी लैंगिक समानता को लेकर जागरूकता की भारी कमी है।
तकनीक का दुरुपयोग
हालांकि लिंग जांच और भ्रूण हत्या पर कानूनन रोक है, फिर भी गुप्त रूप से यह चलन आज भी कायम है। अल्ट्रासाउंड तकनीक के जरिए लिंग परीक्षण कराना और भ्रूण हत्या जैसी अमानवीय गतिविधियां लिंगानुपात के गिरने की बड़ी वजह हैं।
राजनीतिक प्रतिक्रिया और आलोचना
बिहार में घटते लिंगानुपात को लेकर कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘X’ पर लिखा कि “एक तरफ महिलाओं पर लगातार हो रही बर्बरता और दूसरी तरफ लिंगानुपात के मामले में देश में सबसे खराब स्थिति इस बात का संकेत है कि बिहार का डबल इंजन महिलाओं के लिए खतरनाक साबित हो रहा है।”
उन्होंने सरकार से सवाल पूछा कि आख़िर ऐसा क्या हो रहा है कि जन्म लेने वाले बच्चों में बेटियों की संख्या लगातार गिर रही है? प्रियंका गांधी की टिप्पणी ने इस संवेदनशील मुद्दे को राजनीतिक विमर्श का हिस्सा तो बनाया, लेकिन इससे भी अधिक जरूरी है कि समाज इसे आत्मचिंतन का विषय बनाए।
आंकड़ों की एक और तस्वीर
हालांकि बिहार में लड़कियों के जन्म की कुल संख्या देश में तीसरे स्थान पर है – 2022 में कुल 30.70 लाख बच्चों का जन्म हुआ, जिसमें से 13.10 लाख लड़कियां और 14.70 लाख लड़के थे। यह संख्या ज्यादा जरूर लगती है, लेकिन अनुपातिक दृष्टि से यह चिंताजनक है क्योंकि यह असंतुलन आने वाले समय में सामाजिक ढांचे को प्रभावित कर सकता है।
भविष्य की आशंकाएं
अगर यह रुझान यूं ही जारी रहा तो भविष्य में:
- लड़कों के विवाह के लिए लड़कियां नहीं मिलेंगी, जिससे समाज में कुंठा, अपराध और मानव तस्करी जैसी समस्याएं बढ़ सकती हैं।
- लैंगिक असंतुलन से महिलाओं पर अत्याचार, बाल विवाह, खरीद-फरोख्त और बाल तस्करी जैसी घटनाओं में वृद्धि हो सकती है।
- सामाजिक ढांचे में अस्थिरता आ सकती है, जिससे परिवार और समुदायों में तनाव और अव्यवस्था फैल सकती है।
समाधान और जरूरी कदम
इस समस्या से निपटने के लिए सरकार और समाज दोनों को सक्रिय भूमिका निभानी होगी:
- सख्त कानूनी कार्रवाई: लिंग जांच और भ्रूण हत्या पर निगरानी मजबूत करनी होगी।
- शिक्षा और जनजागरूकता अभियान: बेटियों की अहमियत को लेकर स्कूलों, पंचायतों और मीडिया के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलानी होगी।
- बेटियों को प्रोत्साहन: ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियानों को जमीनी स्तर तक मजबूती से लागू किया जाना चाहिए।
- महिला सशक्तिकरण: बालिकाओं की शिक्षा, सुरक्षा और आर्थिक सशक्तिकरण के लिए योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करना होगा।
निष्कर्ष
बिहार में लिंगानुपात में हो रही गिरावट एक गंभीर सामाजिक और मानवीय समस्या है, जिसे आंकड़ों तक सीमित रख देना खतरनाक होगा। यह केवल एक राज्य की नहीं, बल्कि पूरे समाज की चेतावनी है कि अगर हम आज नहीं जागे तो कल की पीढ़ियां इसके दुष्परिणाम भुगतने को मजबूर होंगी। अब वक्त आ गया है कि समाज मिलकर इस दिशा में गंभीर और सकारात्मक कदम उठाए ताकि एक संतुलित, न्यायसंगत और सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित किया जा सके।
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