आज हम आपको लेकर चलेंगे बिहार के भागलपुर जिले के घंटाघर इलाके में स्थित एक मंदिर में, जहां बीमारियों का इलाज किया जाता है एक ऐसे तरीके से, जिसे देखकर आप हैरान रह जाएंगे। इस मंदिर में इलाज की विधि पर विश्वास करने वाले भी हैं और इसे लेकर सवाल उठाने वाले भी। आइए जानते हैं कि आखिर क्या है इस अग्नि अनुष्ठान का रहस्य।
यह नजारा है भागलपुर के घंटाघर इलाके में स्थित एक प्राचीन मंदिर का, जहां हर दिन दर्जनों लोग अपने बीमार बच्चों को लेकर पहुंचते हैं। इन बच्चों को यहां एक खास विधि के तहत इलाज के लिए लाया जाता है—जिसमें शामिल है आग। जी हां, आप सही सुन रहे हैं। मंदिर के पुजारी एक विशेष अग्नि अनुष्ठान के जरिए बीमारियों का इलाज करते हैं।
इस अनोखी प्रक्रिया में सबसे पहले बीमार बच्चे को कपड़े में पूरी तरह लपेटा जाता है, ताकि उसका शरीर आग के सीधे संपर्क में न आए। इसके बाद पुजारी मंत्रोच्चारण के साथ आग जलाते हैं और फिर आग की लपटें कपड़े के ऊपर फेंकी जाती हैं। इस दौरान बच्चे डर से कांपने लगते हैं, कई बार रोने भी लगते हैं। लेकिन परिजन इस प्रक्रिया को पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ पूरा करवाते हैं।
स्थानीय मान्यता है कि इस अग्नि अनुष्ठान से वर्षों पुरानी बीमारियां भी ठीक हो जाती हैं। पुजारी का दावा है कि यह एक पारंपरिक पद्धति है, जिसमें मंत्र शक्ति, ईश्वर की कृपा और अग्नि तत्व के माध्यम से नकारात्मक ऊर्जा को शरीर से बाहर निकाला जाता है। पुजारी कहते हैं कि यह कोई नया तरीका नहीं है, बल्कि सदियों पुरानी एक आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति है।
इलाज करवाने आए एक व्यक्ति ने बताया, “हम कई डॉक्टरों के पास गए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। यहां आने के बाद भगवान और बाबा की कृपा से मेरे बेटे की तबीयत में सुधार हुआ। हम हर साल यहां दर्शन और अग्नि अनुष्ठान के लिए आते हैं।”
यहां आने वाले लोग इसे पूरी श्रद्धा से अपनाते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं। बच्चों के ऊपर जलती हुई आग फेंकना, चाहे वह कपड़े से ढके हों या नहीं, किसी भी सूरत में सुरक्षित नहीं कहा जा सकता। किसी भी दुर्घटना की स्थिति में जान का खतरा भी हो सकता है।
विशेषज्ञों की राय में यह तरीका न केवल वैज्ञानिक आधार से कोसों दूर है, बल्कि बच्चों की मानसिक और शारीरिक सेहत के लिए भी हानिकारक हो सकता है। डॉक्टरों का कहना है कि अगर इलाज के नाम पर किसी बच्चे को डराया जाए या शारीरिक खतरे में डाला जाए, तो यह चिकित्सा नहीं बल्कि प्रताड़ना मानी जाएगी।
हालांकि, इस मंदिर में आस्था रखने वाले लोगों के लिए यह सिर्फ एक अनुष्ठान नहीं, बल्कि ईश्वर का आशीर्वाद है। वे इसे अपनी परंपरा का हिस्सा मानते हैं और मानते हैं कि जब सब ओर से निराशा हाथ लगे, तब ईश्वर के दर पर चमत्कार संभव हो जाता है।
इस अनोखे इलाज के पीछे का विज्ञान चाहे कुछ भी कहे, लेकिन समाज में ऐसी परंपराएं आज भी जीवित हैं, जहां आस्था और अंधविश्वास के बीच की रेखा धुंधली हो जाती है।
अब सवाल ये उठता है कि क्या किसी की जान को खतरे में डालकर बीमारियों का इलाज किया जाना चाहिए? क्या ऐसे तरीकों पर रोक लगनी चाहिए? या फिर यह लोगों की व्यक्तिगत आस्था का मामला है जिसमें किसी को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए?
इन सवालों का जवाब ढूंढना समाज और प्रशासन दोनों के लिए ज़रूरी है, ताकि परंपरा और सुरक्षा के बीच संतुलन बनाया जा सके।
