सबसे पहले एक कहानी सुनिए। कह नहीं सकता कि यह कथा कितनी सही या गलत है, पर इसका संदेश बेहद सार्थक है। कहते हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन एक बार व्हाइट हाउस के बाहर टहल रहे थे। घना कोहरा था। दृश्यता की कमी से एक राहगीर उनसे टकरा गया। वह शायद जल्दी में था। झुंझलाहट में उसने पूछा- आप कौन? राष्ट्रपति का जवाब था, यही जानने के लिए तो टहल रहा हूं। राहगीर को लगा कि यह शख्स सनकी है। उसने व्हाइट हाउस की ओर इशारा करते हुए व्यंग्य से पूछा, यह तो जानते हो न कि इसमें कौन रहता है? राष्ट्रपति का जवाब था- मित्र, इसमें कोई नहीं रहता, लोग आते और चले जाते हैं। इन अल्फाज में कितनी सच्चाई है! वैधानिक पदों पर आसीन लोग आते-जाते हैं, मगर उनके काम और उन संस्थानों की मर्यादाएं कायम रहती हैं।

संसार के सबसे विशाल लोकतंत्र भारत में पिछले दिनों प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान जो हुआ, वह स्थापित मानदंडों और मर्यादाओं का निर्लज्ज उल्लंघन है। उनका जाम में फंसना और इस तरह लौटना भारतीय राज-व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि सुरक्षा में सेंध की वजह से हम एक प्रधानमंत्री और एक पूर्व प्रधानमंत्री पहले ही गंवा चुके हैं। पंजाब का यह इलाका सीमावर्ती है और यहां बेहतर सुरक्षा सरंजाम की जरूरत थी। हुआ इसका उल्टा। आज तक कभी कोई प्रधानमंत्री इस तरह सड़क पर समय गुजारने के लिए बाध्य नहीं हुआ था। हालांकि, इससे पहले 2018 में प्रधानमंत्री मोदी का काफिला दिल्ली में कुछ देर के लिए ठिठका था। इसके पूर्व दिसंबर 2017 में नोएडा में भी मेट्रो के उद्घाटन के वक्त उनका कारवां स्थानीय पुलिस की चूक से रास्ता भटक गया था। तब दोषी पुलिसकर्मियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई भी हुई थी। मुझे यकीन है कि आज नहीं, तो कल इस मामले में शिथिलता बरतने वाले अधिकारी बख्शे नहीं जाएंगे। पर यह समय गुप्तचर शाखा (आईबी) द्वारा पोषित ‘ब्लू बुक’ में जरूरी संशोधन का भी है।
ऐसे संवेदनशील मामलों में ढील खतरनाक रवायत में तब्दील हो सकती है। केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने इसीलिए ऐसी कार्रवाई की बात कही है, जो मिसाल बन जाए, पर पंजाब सरकार का रवैया अभी से अपनी बला औरों के माथे मढ़ने का है। भरोसा न हो, तो पिछले तीन दिनों में मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी द्वारा दिए गए बयानों पर नजर डाल देखिए, आपका सच से सामना हो जाएगा। किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि यह घटना देश के प्रधानमंत्री के साथ हुई है। इसे राजनीति और राजनीतिक हस्तियों से जोड़ना खतरनाक साबित हो सकता है। पर ऐसा है कैसे?
हमारे मुल्क में बहुदलीय लोकतंत्र है। ऐसा दशकों से होता आया है कि केंद्र में किसी खास दल या गठबंधन की सरकार है, तो कुछ प्रदेश धुर विरोधी विचारों वाली पार्टियों से संचालित होते रहे हैं। विचारधाराओं के द्वंद्व, राज्य और केंद्रीय हितों के टकराव से, तो कुछ नेताओं के निजी अहं की वजह से उनमें खाई रह-रहकर गहरी होती जाती है। देश के संघीय ढांचे के लिए यह भला शकुन नहीं है।
पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल के चुनावों के दौरान हमें हैरतअंगेज दृश्य देखने को मिले थे। आपको याद होगा कि किस तरह बंगाल पुलिस ने सीबीआई के अधिकारियों को बंधक बनाने की शैली में घंटों तक घेरकर रखा था। यही नहीं, भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की कार पर भी हमला किया गया था। आज भी वहां के तमाम भाजपा नेताओं, विधायकों को केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों की सुरक्षा प्राप्त है, जबकि यह काम राज्य सरकारों का है। पर प्रदेशों की पुलिस मुख्यमंत्री के इशारों पर काम करती है, ऐसा आरोप बंगाल सहित तमाम राज्यों में लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेता समय-बेसमय जड़ते रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि केंद्रीय बल और एजेंसियां इस कीचड़ की लपेट में नहीं आई हैं। सीबीआई, ईडी और आयकर विभाग तो पहले से ही आरोपों की जद में थे, पर इधर एक नया विभाग चर्चा में है- जीएसटी। कानपुर में इत्र व्यवसायी पीयूष जैन के यहां छापा इसी एजेंसी ने डाला था। उसे हैरतअंगेज सफलता भी मिली थी। 177.45 करोड़ रुपयों की बरामदगी की प्रशंसा होनी चाहिए थी, पर हुआ उल्टा। पहले भाजपा और बाद में सपा की दोषवर्षा ने इसे राजनीति के राहु के हवाले कर दिया। कुछ दिन बाद समाजवादी पार्टी के विधायक पंपी जैन के यहां पडे़ आयकर छापे का भी यही हश्र हुआ। विपक्ष का साझा आरोप है कि सरकार चुनाव के वक्त इन एजेंसियों का उपयोग अपने सहयोगी संगठन के तौर पर करती है। क्या ऐसा पहली बार हो रहा है? यकीनन नहीं। खुद नरेंद्र मोदी बहैसियत मुख्यमंत्री गुजरात इसके शिकार हो चुके हैं।
चुनाव-दर-चुनाव यह दुष्प्रवृत्ति जोर पकड़ती जा रही है। पंजाब की यह घटना इसमें निर्णायक मोड़ साबित होने जा रही है।
ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि वहां प्रधानमंत्री के दौरे के वक्त अपनाई जाने वाली लिखित प्रक्रिया का स्पष्ट तौर पर उल्लंघन हुआ है। अच्छा होता कि पंजाब की सरकार खुले मन से इस पर कार्रवाई करती, लेकिन चुनावी समय की अपनी मजबूरियां होती हैं। मुख्यमंत्री चन्नी ने एक जांच आयोग का गठन किया और फिर सारे मामले को सियासी मोड़ दे दिया है। भाजपा के नेता भी यही कर रहे हैं।
उधर गृह मंत्रालय ने भी उच्चाधिकारियों की एक जांच समिति गठित की है, पर सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को आदेश जारी कर सभी पक्षों से रिपोर्ट मांगी है। तब तक हर तरह की जांच स्थगित रहेगी। आला अदालत सोमवार को जो फैसला सुनाए, पर एक बात साफ है कि सियासतदानों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
मैं तमाशा रचकर तमाशा देखने वाले इन नेताओं को एक किस्सा याद दिलाना चाहूंगा। अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन पर हमले के बाद जो जांच समिति बैठी, उसने ‘स्पेशल फोर्स’ में सार्थक बदलाव की सिफारिश की थी, जिसे तत्काल अमल में लाया गया था। उसका जिक्र करते हुए हमारे एक सुरक्षा प्रबंधक ने मुझे बताया था कि अति-महत्वपूर्ण व्यक्तियों के रक्षकों को हरदम यह मानना चाहिए कि आपका ‘सब्जेक्ट’ आपकी हथेली पर रखे कांच के उस गिलास की तरह है, जिसे दुनिया की तमाम ताकतें, जिनमें आपके अजीज भी हो सकते हैं, तोड़ना चाहती हैं। आपको यह जानते हुए कि यह कभी भी टूट सकता है, हर हाल में उसकी सुरक्षा करनी है। कहने की जरूरत नहीं कि तब से अब तक किसी अमेरिकी राष्ट्रपति पर वैसा हमला नहीं हुआ। हमें भी अपने इंतजामों को वैसा ही चाक-चौबंद बनाना होगा। तभी विशेष सुरक्षा दस्ते (एसपीजी) का यह ध्येय वाक्य- शून्य गलती और उत्कृष्टता की संस्कृति समूची सार्थकता को प्राप्त हो सकेगा।

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