भागलपुर! एक साथ 78 प्रतिमाएं मां काली की शोभायात्रा को निहार रहा शहर। 26 अक्टूबर की रात से प्रतिमाओं को विसर्जन निकाला गया। यहां शोभायात्रा का खास आकर्षण है। एक साथ पूरे शहर में हर जगह सड़क पर प्रतिमाएं देखी जाती है

बिहार का अंग प्रदेश और अंग प्रदेश का भागलपुर। यहां का प्रसिद्ध मां काली विसर्जन जुलूस। 26 अक्टूबर की रात से प्रतिमाओं को मंदिर से विसर्जन के लिए बढ़ाया गया। हर राह हर सड़क पर मां काली की प्रतिमा और श्रद्धालुओं का हुजूम नजर आने लगा। कह सकते हैं कि मां काली भागलपुर की सड़कों पर सवार हो गईं। प्रतिमा अगली सुबह तक कतारबद्ध होकर मुसहरी घाट की ओर बढ़ने लगीं। प्रतिमाओं को मुसहरी घाट पर विसर्जित किया जाएगा।

78 प्रतिमाएं कतार में

मंदिर व पूजा पंडालों से घाट तक पहुंचने में 24 घंटे से भी ज्यादा का वक्त मां काली की प्रतिमाओं के विसर्जन के इस स्वरूप के लिए भागलपुर न सिर्फ बिहार, बल्कि अन्य राज्यों में भी मशहूर है। दिवाली में यहां छोटी-बड़ी 108 प्रतिमाएं स्थापित होती हैं।

खास आकर्षण है शोभायात्रा

विसर्जन शोभायात्रा में अभी 78 प्रतिमाएं कतार में लगती हैं। श्री श्री 108 काली महारानी महानगर केंद्रीय महासमिति समन्वय का कार्य करती है। सारी प्रतिमाओं का जुटान स्टेशन चौक पर होता है और फिर पांच किलोमीटर दूर विसर्जन घाट तक पहुंचते-पहुंचते 24 घंटे से ज्यादा का वक्त लग जाता है। इस दौरान सड़क के दोनों किनारों और घर की छतों पर हजारों श्रद्धालु विसर्जन शोभायात्रा के दर्शन को खड़े होते हैं। यह नजारा अद्भुत है। य़ह भागलपुर की खास पहचान है। विसर्जन जुलूस का इंतजार करते हैं लोग।

प्रतिमा वाले वाहन को श्रद्धालु पूजा स्थल से रस्सी से खीचकर लाते हैं। यह परंपरा दशकों से चली आ रही है। प्रतिमाओं को स्टेशन चौक पर अपने अपने नंबर के हिसाब से कतार में लगा दिया जाता है। सबसे अंत में बुढ़ानाथ में स्थापित होने वाली वाम काली की प्रतिमा होती है। हालांकि बुढ़ानाथ में स्थापित की जाने वाली बम काली की प्रतिमा को विसर्जन के तय तिथि पर ही स्टेशन चौक से पुष्ट दूरी पर स्थित खलीफाबाग चौक पर लाकर रख दिया जाता है। यहां मां वाम काली तकरीबन 24 घंटे रहती हैं। कतार में लगने वाली सारी जब आगे बढ़ती हैं तब अंतिम प्रतिमा के रूप में यह कतार में शामिल होती हैं।

महाभारत काल से हो रही शक्ति की पूजा

अंग क्षेत्र (भागलपुर आसपास) में शक्ति की पूजा तो महाभारत काल से होने का तार्किक प्रमाण है। स्थानीय इतिहास की खोज पर लगातार काम करने वाले राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अंग प्रदेश के राजा दानवीर कर्ण सुबह सूर्य की उपासना के बाद शक्ति की पूजा करते थे। तभी यहां हर घर में परमेश्वरी की पूजा होती थी। मां काली उसी परमेश्वरी का रूप है।

क्यों की जाती है काली पूजा

श्रीशिवशक्तियोगपीठ नवगछिया के पीठाधीश्‍वर संत शिरोमणी परमहंस स्वामी आगमानंद जी महाराज बताते हैं कि राक्षसों का वध करने के बाद जब महाकाली का क्रोध कम नहीं हुआ तो भगवान शिव उनके चरणों में लेट गए। इसी से मां काली का क्रोध शांत हुआ। स्‍वामी आगमानंद जी महाराज ने शाहकुंड के जगरिया पहाड़ पर इस बार मां काली की आराधना की। 

काल को नियंत्रित करती है काली

कहलगांव के प्रसिद्ध कथावचक पंडित श्री मधुसूदनाचार्य बताते है कि काली पूजा अमावस्या की अर्धरात्रि को होती है। माता का रंग काला है और वे काल को नियंत्रित करती है इसलिए उनका नाम काली पड़ा।

काली प्रतिमाओं के विसर्जन की कतार 26 अक्टूबर की रात से लगनी शुरू हुई। हर बार की तरह स्टेशन चौक से विसर्जन शोभायात्रा देर रात निकली जो 27 अक्टूबर की शाम तक मुसहरी गंगा घाट के पास पहुंचनी शुरू हुई है। 28 अक्टूबर की सुबह तक विसर्जन का सिलसिला चलता रहेगा।

कतारबद्ध विषर्जन की शुरुवात

मां काली की प्रतिमाओं के कतारबद्ध विसर्जन की शुरुआत यहा 1954 से शुरू हुई तब डॉ. मंजरवार कधी सिन्हा, राजेद्र प्रसाद गुप्ता एवं तारिणी प्रसाद मिस्त्री ने श्री श्री 108 काली महारानी महानगर केंद्रीय महासमिति भागलपुर का गठन किया। तब 19 प्रतिमाएं एक साथ निकाली जाती थी। मौजूदा महासमिति के उपाध्यक्ष अभय घोष सोनू बताते हैं कि उनके रिकार्ड के मुताबिक 1955 में 30 प्रतिमाए कतार में आईं। 1956 में यह संख्या बढ़कर 34 हुई। 1962 तक 41 और 1969 में 47 हुई। अभी कतार में 78 प्रतिमाएं शामिल होती है। इस वर्ष 66वीं शोभायात्रा होगी। पिछले आठ वर्षों से यह संख्या बढ़ी नहीं है। कई प्रतिमाएं बिना कतार में आए भी विसर्जित की जाती है।

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