लोक आस्था का महापर्व छठ बिहार की अस्मिता बन चुकी है।

उगते और डूबते सूर्य की समभाव से पूजा का यह अनोखा पर्व है। बिहार के जनजीवन में ऐसा समाहित हो गया है कि यह अब केवल यहां की संस्कृति ही नहीं, बल्कि संस्कार बन गया है।

बिहारियत की गर्व बन चुके इस पर्व की पहुंच अब दुनियाभर में है। किसानों, मजदूरों, खेतिहरों, से लेकर जन-जन के लिए पारिवारिक मिलन तथा उत्साह का यह अहम अवसर बन गया है।

होली-दिवाली में भले ही पूरा परिवार इकह्वा न हो, पर छठ से दूर-दराज से भी परिजन आवागमन के तमाम कष्टों को झेल जुट जाते हैं।

न किसी पुजारी की आवश्यता, न किसी मंत्र की जरूरत। पूजा करना जितना ही आसान, अनुष्ठान की पवित्रता कायम रखना उतना ही मुश्किल।

पर्व का उल्लास ऐसा कि हर घर, हर सड़क, हर दिशा छठि मैया, भगवान भास्कर की आराधना में मग्न।

शक्ति के परम स्त्रत्तेत सूर्य की पूजा का यह उत्सव कब से शुरू हुआ, इसकी कोई प्रामाणिकता तो नहीं मिलती, लेकिन पुरखे इसे तन-मन-धन से मनाते आ रहे हैं।

मगध और मिथिला क्षेत्र में, खासकर नदी-पोखर-तालाब-सरोवर आदि जलस्रोतों के किनारे सूर्योपासना के साक्ष्य इतिहास में मिलते हैं। बिहार के प्राचीन साहित्य में भी सूर्य पूजा का उल्लेख है।

ऋग्वेद, स्कंदपुराण, विष्णु व सूर्य पुराण तथा महाभारत में भी इसका वर्णन है। सदा जल में अर्घ्य देने वाले सूर्यपुत्र कर्ण तो अंगराज ही थे। राम-सीता के भी अर्घ्य देने के प्रमाण हम पाते हैं। मान्यता है मगध के भूभाग में शकों के आगमन के बाद सूर्यपूजा की परंपरा आगे बढ़ी।

छठ तीन पर्वों का मिश्रण

छठ चार दिवसीय पर्व है। चतुर्थी तिथि को नहाय-खाय, पंचमी को खरना, षष्ठी तिथि को सायं और सप्तमी तिथि को सुबह का अर्घ्य दिया जाता है। हालांकि पर्व का मूलभाग ‘अर्घ्य’ षष्ठी तिथि से आरंभ होता है, आमभाषा में इसीलिए इसे छठ कहते हैं। देवी कात्यायनी का भी नाम छठ है। बच्चे का जन्म होने पर छठी मनाई जाती है। इसलिए मूलरूप से इस पर्व में बच्चों के आरोग्य की कामना की जाती है। छठ के अध्येता पं. भवनाथ झा के मुताबिक इस पर्व की शास्त्रत्त्ीय मान्यता इतर है। यह तीन पर्वों का मिश्रण है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को सूर्य की वार्षिक पूजा का विधान है। इसी तिथि को अंधकासुर के वध के लिए देवताओं के सेनापति के रूप में कार्तिकेय का राजतिलक किया गया था। षष्ठी तिथि को स्कंद अर्थात कार्तिकेय का जन्म हुआ था। वे अनाथ बालक के रूप में जंगल में मिले।

सूर्य प्रतिमाएं 8वीं तो सूर्यमंदिर 10वीं-13वीं सदी के

डॉ. विजय कुमार चौधरी की मानें तो बिहार के मिथिला, मगध, अंग, शाहाबाद के गांवों में बहुतायत में सूर्यप्रतिमाएं मिली हैं। बिहार में सूर्य की प्रतिमाएं 8वीं सदी के कालखंड की पाई गई हैं जबकि सूर्यमंदिर 10वीं से 13वीं शताब्दी की हैं।

दाफ्तू (जहानाबाद), देव मार्कण्डेय तथा उमगा (औरंगाबाद), औंगारी व बड़गांव (नालंदा), कंदाहा (सहरसा), पुनारक (पटना) ऐसे जगप्रसिद्ध सूर्यमंदिर हैं जिनमें से कई के अभिलेख उनके कालखंड को बताते हैं। खासबात यह है कि इनमें से अधिकांश सूर्यमंदिर नदी या तालाब किनारे हैं, जिससे पता चलता है कि यहां जलस्रोतो में अर्घ्य देने की परंपरा रही है।

यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित बोधगया के महाबोधि मंदिर में स्थापित सूर्यप्रतिमा को इतिहासकार व पुराविदों ने भारतवर्ष में सबसे प्राचीन माना है। उसकी शैली व साक्ष्य के आधार पर इसे ईशा की प्रारंभिक शताब्दी का माना गया है। अर्थात 2000 साल पूर्व भी बिहार में सूर्य की पूजा होती थी। दूसरा अहम पहलू यह है कि इस पूजा का अप्रतिम महात्म्य ही है कि बौद्ध धर्मावलंबियों को भी अपने परिसर में सूर्य मंदिर की स्थापना करनी पड़ी।

मिट जाती है वर्ग व जाति की खाई

छठ सामाजिक समरसता की अनूठी मिसाल पेश करता है। जाति और वर्ग की खाई भी इसमें मिट जाती है। सभी परवैती एक समान श्रद्धेय। छठ घाटों पर सबके लिए व्यवस्था भी समान रहती है। साम्प्रदायिक सौहार्द का यह सर्वोत्तम उदाहरण है।

ज्यादातर पूजन सामग्री, मसलन सूप-दउड़ा-मउनी आदि मुस्लिम भाई-बहन द्वारा तैयार किये जाते हैं। कृषि उत्पादों से तैयार भोग सामग्री इस पर्व को और विशिष्ट बनाता है।

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