बिहार की सियासत में इन दिनों कांग्रेस की बदली रणनीति चर्चा का विषय बनी हुई है। खासतौर पर राहुल गांधी और उनकी टीम की चालें यह संकेत दे रही हैं कि अब कांग्रेस लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार के साये से बाहर निकलकर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने की कोशिश में जुट गई है। कांग्रेस ने बिहार में प्रभारी के रूप में कृष्णा अल्लावुरु की नियुक्ति की और प्रदेश अध्यक्ष के पद पर राजेश राम को लाकर एक साथ दो संदेश देने की कोशिश की—एक तरफ दलितों को साधने का प्रयास, तो दूसरी ओर यह स्पष्ट संकेत कि अब लालू प्रसाद यादव की हर बात नहीं मानी जाएगी।

कभी बिहार कांग्रेस में लालू यादव की राय सर्वोपरि मानी जाती थी, लेकिन अब स्थितियाँ बदल रही हैं। कांग्रेस ने जातीय जनगणना को “फर्जी” कहकर जहां राजद को असहज किया, वहीं तेजस्वी यादव द्वारा दिसंबर 2024 में घोषित “माई बहिन योजना” को हाईजैक करते हुए उसे नया रूप देकर पेश कर दिया। इसे “माई बहिन मान योजना” नाम दिया गया और इसे राहुल गांधी का ड्रीम प्रोजेक्ट बताया गया। इस योजना के तहत महिलाओं को हर महीने ₹2500 देने की बात की गई और इसके लिए नामांकन प्रक्रिया शुरू करने का भी ऐलान कर दिया गया।

यह कदम राजद के लिए किसी झटके से कम नहीं था। कांग्रेस ने यह संकेत दे दिया कि वह अब केवल एक सहयोगी दल नहीं बल्कि बराबरी का भागीदार बनकर चुनावी रणभूमि में उतरना चाहती है। राजद के प्रवक्ताओं ने इसे महागठबंधन की सामूहिक योजना करार देकर स्थिति को संभालने की कोशिश की, लेकिन सच्चाई यह है कि कांग्रेस की यह रणनीति साफ तौर पर शक्ति प्रदर्शन है।

महागठबंधन की समन्वय समिति की अध्यक्षता जब तेजस्वी यादव को मिली थी, तब राजद को यह भरोसा था कि आगे भी लालू परिवार का ही दबदबा रहेगा। कांग्रेस ने शुरुआत में ऐसा संकेत दिया भी, लेकिन अब वह अपने फैसले खुद लेने का मन बना चुकी है। सीट बंटवारे के मुद्दे पर भी दोनों दलों के बीच टकराव नजर आ रहा है। जहां राजद कांग्रेस को सिर्फ 50 सीटें देना चाहती है, वहीं कांग्रेस 70 से कम सीटों पर समझौता करने के मूड में नहीं है।

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, कांग्रेस इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में यह साबित करना चाहती है कि वह सिर्फ “फॉलोअर” नहीं बल्कि एक निर्णायक ताकत है। महाराष्ट्र और झारखंड जैसे राज्यों में महिलाओं को लेकर लागू की गई योजनाओं की सफलता से उत्साहित कांग्रेस अब बिहार में भी महिलाओं को केंद्र में रखकर अपना जनाधार बढ़ाना चाहती है। माई बहिन योजना को नया रूप देकर और तेजस्वी की घोषणा को अपने पक्ष में मोड़कर कांग्रेस ने यह भी दर्शा दिया कि वह अब किसी सहयोगी की छाया में नहीं रहना चाहती।

कुल मिलाकर, कांग्रेस और राजद के बीच विश्वास की कमी अब खुलकर सामने आ चुकी है। रणनीति की यह रस्साकशी अगर समय रहते नहीं सुलझी, तो महागठबंधन की एकता पर असर पड़ सकता है। आने वाले दिनों में देखना दिलचस्प होगा कि क्या कांग्रेस अपनी जिद छोड़ती है या फिर राजद को अपने रुख में नरमी लानी पड़ेगी।

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