आधुनिक युग में अगर आपकी पढ़ाई छूट जाए तो समाज का एक धड़ा आपको खारिज करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता। हालांकि, आलोचनाओं की परवाह किए बिना खुद पर यकीन रखने वाले कुछ उद्यमी ऐसे कारनामे कर दिखाते हैं जो कामयाबी की मिसाल बन जाते हैं। कुछ ऐसी ही सक्सेस स्टोरी है राजेश ओझा की। पढ़िए कैसे 12वीं कक्षा के ड्रॉपआउट छात्र राजेश अब जामुन आधारित एग्रो-फूड कंपनी जोवाकी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं। राजेश की इंस्पायरिंग जर्नी महज एक हजार रुपये और परिवार के समर्थन के साथ शुरू हुई थी। इन्होंने जनजातीय इलाकों को आधुनिक दुनिया के साथ जोड़ने का बीड़ा उठाया है।

आदिवासी महिलाओं की मदद का फैसला

12वीं कक्षा में पढ़ाई अधूरी छूटने के बाद राजेश ओझा ने ‘मायानगरी-मुंबई’ जैसा शहर छोड़ राजस्थान के उदयपुर लौटने का फैसला लिया। वे मुंबई नौकरी और पैसे की तलाश में गए थे। वर्तमान में खेती-किसानी से जुड़े काम पर आधारिक एग्रो-फूड कंपनी के CEO राजेश बताते हैं कि शुरुआत में उन्हें कृषि का बिल्कुल ज्ञान नहीं था। परिवार में भी खेती-किसानी के काम नहीं होते थे। हालांकि, पत्नी पूजा ओझा उनके फैसले के साथ थीं। ऐसे में दोनों ने समाज के वंचित वर्ग – ग्रासिया आदिवासी महिलाओं की मदद करने की ठानी। यहीं से शुरू हुई राजेश की उद्यमिता।

Jovaki पांच साल में 20 करोड़ की कंपनी बनी

ग्रासिया आदिवासी महिलाओं की मदद कर रहे राजेश ओझा जामुन पर आधारित अनोखा सामाजिक उद्यम मॉडल के माध्यम से आदिवासी महिलाओं के जीवन में कामयाबी के अध्याय लिख रहे हैं। राजेश ओझा की कंपनी जोवाकी का शाब्दिक अर्थ शिक्षित करना है। 2017 में शुरू हुई जोवाकी की मार्केट वैल्यू पांच साल के बाद करीब 20 करोड़ आंकी गई है। अनुमान के मुताबिक आगामी दो वर्षों में जोवाकी का बाजार मूल्य 10 गुना बढ़ सकता है। पढ़ाई छूटने के बावजूद सक्सेस और सोशल इंटरप्रेन्योरशिप की मिसाल बने राजेश की सफलता युवा कृषकों और खेती-किसानी आधारित उद्योग करने की चाह रखने वाले युवा उद्यमियों की प्रेरणा बन सकता है।

पैसों की कमी हुई, आलोचकों को मिला मौका

आज एक सफल सीईओ के रूप में कई लोगों की आजीविका के आधार राजेश ओझा शुरुआती दिनों को काफी चैलेंजिंग बताते हैं। राजेश कहते हैं कि उनके पास न तो इतने पैसे थे कि खुद पर खर्च कर सकें। बिजनेस में भी पैसों की तंगी थी। बकौल राजेश, आर्थिक संकट के बीच कई लोगों ने इस बात के लिए आलोचना की, कि उन्होंने कोई मामूली बिजनेस का रास्ता क्यों नहीं चुना। खेती आधारित करियर चुनने और सुदूर जंगली इलाकों में रहने का फैसला लेने के कारण उन्हें कई बार खारिज किया गया।

आसान नहीं रहा भरोसा जीतना

आदिवासी इलाके में काम करने की चुनौती के बारे में राजेश बताते हैं कि महिलाओं के साथ बात करना और उन्हें भरोसा दिलाना आसान नहीं था। उन्होंने कहा कि एक अनजान शख्स को उनके वनों में पैदा हुए उत्पाद को बेचने के लिए राजी करना लोहे के चने चबाने जैसा था। बकौल, राजेश शुरुआती दिनों में धीमी प्रगति हुई, लेकिन उन्होंने धैर्य बनाए रखा। धीरे-धीरे उनकी सादगी और विनम्रता से लोग प्रभावित हुए। उदयपुर के जनजातीय समुदाय का विश्वास बढ़ा और लोगों के साथ संबंध मजबूत हुए।

सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव का ध्यान

राजेश ओझा की सफलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज उनकी कंपनी जोवाकी एग्रो फूड्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड 1000 से अधिक आदिवासी परिवारों के लिए आजीविका का स्रोत है। जोवाकी ने दक्षिणी राजस्थान के गांवों में प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना की है। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भी इसी मॉडल पर काम हो रहा है। जोवाकी महिलाओं को रोजगार देने के अलावा फलों की प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग भी देता है।

प्रोफेशनल्स को मात देने का माद्दा

जोवाकी से जुड़ीं आदिवासी महिलाएं कई चरणों में काम करती हैं। इनके कौशल विकास के लिए प्रशिक्षण का बंदोबस्त किया गया है। क्षमता विकास की दिशा में जोवाकी के काम की बदौलत महिलाएं, कृषि उत्पादों की, पहचान – कटाई – संग्रह – भंडारण – ग्रेडिंग – छंटाई – धुलाई – प्रोसेसिंग और पैकेजिंग जैसे काम खुद करती हैं। खेतों में फसल तैयार होने से लेकर उत्पाद बाजार भेजे जाने तक 9-10 चरणों की ये पूरी प्रक्रिया हुनरमंद आदिवासी महिलाएं खुद करती हैं। काम में लगन और कुशलता इतनी कि किसी बिजनेस स्कूल से पढ़े प्रोफेशनल्स भी मात खा जाएं।

महिलाओं में बंटता है बिजनेस का लाभ

जोवाकी के एक यूनिट में औसतन 70 आदिवासी महिलाएं फलों के प्रसंस्करण से जुड़ी हैं। 150 महिलाएं फलों का संग्रह करती हैं। ऐसे में अलग-अलग प्रोसेसिंग सेंटर चला रहे राजेश ओझा 1000 से अधिक आदिवासी महिलाओं को रोजगार का अवसर मुहैया करा रहे हैं। जोवाकी सुदूर जंगलों में रहने वाले आदिवासी समुदायों तक पहुंचा है। विशेषकर महिलाओं को स्थायी आजीविका मिली है। बिजनेस में लाभ का लगभग 60% आदिवासी महिलाओं के बीच बांटा जाता है। इससे जीवन स्तर बेहतर बन रहा है।

25000 से अधिक परिवारों को अप्रत्यक्ष लाभ

जोवाकी जैसे इनोवेटिव मॉडल ले 25000 से अधिक परिवारों को अप्रत्यक्ष लाभ मिला है। इन परिवारों के लोग सक्रिय रूप से वृक्षारोपण में भाग लेते हैं। इन्हीं परिवारों को लोग उदयपुर में पहले से मौजूद वृक्षों का संरक्षण भी कर रहे हैं। तथाकथित आधुनिक दुनिया से दूर रहने वाले इन परिवारों के लोग जोवाकी से जुड़ने के बाद कई तरह का कौशल सीख चुके हैं। ऐसी ही एक स्किल है बाजार में अपने उत्पाद को उचित कीमत पर बेचना। जोवाकी का दावा है कि अब आदिवासी इलाकों के उत्पादों की बेहतर कीमत मिल रही है।

उदयपुर के इन्वायरमेंट का भी ध्यान

जोवाकी की पूरी प्रशिक्षण प्रक्रिया में वन और पर्यावरण संरक्षण का हिस्सा महत्वपूर्ण है। इससे पेड़ों और जंगलों के महत्व के बारे में सामान्य जागरूकता पैदा करने में मदद मिली है। राजेश बताते हैं कि बिजनेस के अलावा उनकी कंपनी उदयपुर क्षेत्र में व्यापक वृक्षारोपण अभियान भी चला रही है। उन्होंने बताया कि शरीफा / सीताफल और जामुन के गूदे को बड़े पैमाने पर बर्बाद होते देखने के बाद उनके दिमाग में जोवाकी जैसा इनोवेटिव आइडिया आया और आज नतीजा सामने है।

शादी के बाद परिवार टूटा, हौसला नहीं, महीने में 50 हजार रुपये कमाती हैं 10वीं तक पढ़ीं सरोजा पाटिलउद्यमी सरोजा पाटिल जैविक खेती कर सफलता की मिसाल कायम कर रही हैं। कर्नाटक में केमिकल मुक्त खेती कर रहीं सरोजा पाटिल पीएमएफएमई स्कीम का लाभ उठा चुकी हैं। दावणगेरे जिले के नित्तूर गांव में रहने वालीं सरोजा एन पाटिल बाजरे की सफल खेती कर चुकी हैं। इसके लिए इन्हें कृषि पंडित पुरस्कार मिल चुका है। सरोजा पाटिल गांव की दूसरी महिलाओं को भी ऑर्गेनिक खेती से जुड़ने के लिए प्रेरित कर रही हैं। पढ़ाई के मामले में सिर्फ 10वीं तक पढ़ीं सरोजा घर की तीन बेटियों में दूसरे नंबर पर आती हैं। खेती-किसानी में सफलता हासिल करने वाली सरोजा 50 हजार रुपये महीने कमाती हैं। पढ़िए सक्सेस स्टोरी

2021 में बनाई तधवनम, अब 50 हजार महीने की कमाई

कर्नाटक की सरोजा पाटिल जैविक कृषि उत्पादों को बेचती हैं। उन्होंने केंद्र सरकार की PMFME स्कीम के तहत फरवरी, 2021 में तधवनम इंटरप्राइज की स्थापना की। इसके तहत कई स्थानीय महिलाओं को रोजगार भी मिले हैं। सरोजा बताती हैं कि इस उद्यम की मदद से उन्हें प्रति माह 50,000 रुपये तक की आमदनी होती है। स्वस्थ जीवन शैली की वकालत करते हुए सरोजा दावणगेरे जिले के किसानों को जैविक खेती से जुड़ने और पारंपरिक खेती से ऑर्गेनिक फार्मिंग की ओर बढ़ने में सहायता भी करती हैं।

20 साल से कर रहीं जैविक खेती

गौरतलब है कि भारत सरकार ने बजट 2022 में किसानों से आह्वान किया कि रासायनिक मुक्त, प्राकृतिक कृषि पद्धतियों को अपनाएं। हालांकि, कर्नाटक के हरिहर क्षेत्र के नित्तुरु गांव की सरोजा पाटिल गत दो दशकों से अधिक समय से जैविक खेती कर रही हैं।

10वीं से आगे नहीं पढ़ सकीं, लेकिन…

दावणगेरे के नित्तुरु गांव में सरोजा पहली महिला उद्यमी हैं जिन्होंने जैविक वस्तुओं को बेचने का बीड़ा उठाया है। 63 वर्षीय सरोजा पाटिल सैकड़ों महिलाओं के सशक्तिकरण में भी योगदान दे रही हैं। वे बताती हैं कि घर की तीन बेटियों में से वे दूसरे नंबर की हैं। कभी भी स्कूल में 10वीं कक्षा से आगे की पढ़ाई नहीं कर सकी।

ऐसे शुरू हुई उद्यमिता

सरोजा बताती हैं कि लगभग 42 साल पहले उनकी शादी हुई। 1979 में नागेंद्रप्पा से शादी करने के बाद परिवार में बंटवारा हुआ। 25 एकड़ खेती की जमीन में उनके पति नागेंद्रप्पा के हिस्से में काफी छोटा भूखंड आया। परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए सरोजा के पति गांव के ही कॉयर संयंत्र में काम करने लगे। वे बताती हैं कि नारियल के कचरे को कॉयर में परिवर्तित कर कारखाने में गद्दे, रस्सियों और अन्य वस्तुओं का उत्पादन होता था। इससे प्रेरित होकर एक व्यवसाय शुरू करने और घर पर ही एक छोटी इकाई स्थापित करने का फैसला लिया। सरोजा ने फैमिली लोन और अपने पास जमा कुछ पैसों की मदद से कॉयर मैट, ब्रश और अन्य सामान बनाने के लिए यूनिट की स्थापना की। कुछ दिनों के बाद छोटा डेयरी फार्म शुरू करने का फैसला लिया और गायें भी खरीदीं।

घाटे के कारण कंपनी पर लगा ताला

सरोजा बताती हैं कि उन्होंने जिन वस्तुओं का उत्पादन किया उनकीबाजार में डिमांड भी अच्छी थी। इसके बाद वे एक फर्म शुरू करने की योजना बना रही थीं, लेकिन खराब बुनियादी ढांचे और बिजली आपूर्ति में अड़चन के कारण, जितना सोचा उतने पैसों की इनकम नहीं हुई। अंत में घाटे में होने के कारण कंपनी बंद करनी पड़ी।

जैविक उत्पादों की मार्केटिंग

कंपनी बंद होने के बाद के संघर्ष के बारे में सरोजा बताती हैं कि उन्होंने जैविक खाद्य पदार्थों और उत्पादों की मार्केटिंग पर विचार किया। उन्होंने बताया कि बाजरा और अन्य पारंपरिक अनाज का इस्तेमाल कर खाना पकाना उनका शौक रहा है। जैविक खेती की शुरुआत में सरोजा के पति नागेंद्रप्पा ने जैविक सब्जियों के साथ-साथ ही ज्वार, रागी, धान और बाजरा जैसे अनाजों की रोपाई की। सरोजा ने अपने खेत की ताजा फसल का उपयोग रासायन मुक्त सब्जियों और पारंपरिक व्यंजनों की मार्केटिंग में किया।

सरोजा की मेहनत को मिला सम्मान

सरोजा बताती हैं कि बाजार में उतरने के बाद कई किसानों ने उनसे संपर्क किया। उनके उत्पादों को बाजार में पहचान मिली और डिमांड अच्छी होने के कारण उत्पादों की अच्छी कीमत भी मिली। सरोजा ने महिलाओं और पुरुषों को एक समान रूप से प्रशिक्षित करना शुरू किया। ट्रेनिंग के दौरान जैविक कीट प्रबंधन में मौजूदा कृषि संसाधनों का सही उपयोग और मिट्टी की गुणवत्ता और उत्पादकता में सुधार हो पर जोर दिया गया। कृषि विभाग के अधिकारियों ने सरोजा पाटिल के प्रयासों को देखा और उनसे जैविक खेती को बढ़ावा देने की अपील की। सरोजा की योग्यता का असर ऐसा हुआ कि आस-पास के 20 गांवों के किसान उनसे सलाह लेने आने लगे। वे बताती हैं कि दूसरे किसानों से संवाद के दौरान खुद भी नई फसल उगाने की तकनीक सीखी। कृषि क्षेत्र में ज्ञान और पैसे दोनों मिले। इससे परिवार की वित्तीय स्थिति सुधारने में मदद मिली।

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