रामानंद सागर की ‘रामायण’ में शबरी का किरदार निभाने वाली सरिता देवी, आज भी भारतीय दर्शकों के दिलों में अमर हैं। भले ही उन्होंने लगभग 200 फिल्मों में अभिनय किया हो, पर उन्हें असली पहचान 1987 में आए ‘रामायण’ के शबरी रूप में ही मिली। उनके अभिनय की सादगी, भक्ति और भावुकता ने दर्शकों को भीतर तक छू लिया।
सरिता देवी का जन्म 23 नवंबर 1925 को जोधपुर, राजस्थान में हुआ। वह एक ऐसे समय में अभिनय की दुनिया में कदम रखीं, जब पर्दा प्रथा आम थी। लेकिन उनके पिता पूनमचंदजी चौहान ने हमेशा उनका साथ दिया। 1947 में फिल्म ‘तोहफा’ से उन्होंने अभिनय करियर की शुरुआत की। उस समय वे केवल 22 वर्ष की थीं। इसके बाद उन्होंने ‘चौबेजी’, ‘लव मैरिज’, ‘देवदास’, और ‘गंगा की सौगंध’ जैसी कई फिल्मों में मजबूत सपोर्टिंग रोल किए।
लेकिन उनकी असली प्रसिद्धि 1987 में दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण की शबरी के रूप में आई। यह किरदार न केवल उनकी पहचान बना, बल्कि उन्हें भारतीय टीवी इतिहास का अमर चेहरा बना दिया। उनकी आंखों में श्रद्धा, चेहरे पर संतोष और संवादों में आस्था दर्शकों को याद रह गई।
परदे पर जितनी शांत और सरल दिखने वाली सरिता देवी का वास्तविक जीवन संघर्षों से भरा रहा। केवल 12 वर्ष की उम्र में उनका पहला विवाह हुआ, लेकिन मात्र दो महीने बाद वे विधवा हो गईं। बाद में, 1951 में उन्होंने दोबारा विवाह किया और दो बेटे तथा एक बेटी की मां बनीं। लेकिन 1990 में उनके पति और बाद में बड़े बेटे का निधन हो गया, जिसने उनके जीवन को झकझोर कर रख दिया।

अपने करियर के अंतिम वर्षों में सरिता देवी को पार्किंसंस जैसी गंभीर बीमारी ने जकड़ लिया। इससे उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया। 28 जून 2001 को 78 वर्ष की उम्र में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
सरिता देवी ने हिंदी सिनेमा के साथ-साथ राजस्थानी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों में भी उल्लेखनीय अभिनय किया। उन्होंने ‘मां, दादी, मौसी’ जैसे पारंपरिक किरदारों को जीवन से भर दिया। उनके राजस्थानी लहजे में संवाद बोलने की शैली और स्पष्ट उच्चारण को आज भी सराहा जाता है।
इतना ही नहीं, उन्होंने 7 रूसी फिल्मों को हिंदी में डब करने का भी गौरव प्राप्त किया। यह उनके बहुआयामी अभिनय और भाषा पर पकड़ को दर्शाता है।
सरिता देवी न केवल एक अभिनेत्री थीं, बल्कि एक प्रेरणा थीं—जो विपरीत हालातों में भी अपने अभिनय और आस्था से जीवन को सार्थक करती रहीं। ‘शबरी’ के रूप में उनका योगदान केवल टीवी तक सीमित नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक स्मृति का हिस्सा बन चुका है।
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