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भारत में सनातन धर्म एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसमें मृत्यु के बाद व्यक्ति के पार्थिव शरीर का दाह संस्कार किया जाता है। यह प्रक्रिया मुख्य रूप से लकड़ियों की मदद से की जाती है, जिसमें काफी बड़ी मात्रा में लकड़ी की आवश्यकता होती है। लेकिन बिहार के गया जिले में एक ऐसा अनोखा गांव है, जहां लकड़ी की कमी से उपजा एक दर्दनाक हादसा एक प्रेरणादायी परंपरा की नींव बन गया।

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हम बात कर रहे हैं गया जिले के भलुहार गांव की। लगभग एक हजार की आबादी वाले इस गांव में एक परंपरा पिछले 28 सालों से चली आ रही है। परंपरा यह है कि गांव में जब भी किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तब उसके दाह संस्कार के साथ एक पेड़ अवश्य लगाया जाता है। यह परंपरा शुरू हुई थी वर्ष 1997 में, जब लकड़ियों की कमी के चलते एक शव को अधजला छोड़कर नाले में प्रवाहित कर दिया गया था।

इस दृश्य को देखने वाले थे गांव के सामाजिक कार्यकर्ता विष्णुपद यादव, जिन्होंने उस मंजर से व्यथित होकर पर्यावरण और संस्कृति दोनों के संरक्षण की ठानी। उन्होंने उसी वर्ष ‘नवयुवक संघ’ नामक एक संगठन की स्थापना की और गांव में यह संकल्प लिया कि अब हर अंतिम संस्कार के साथ एक पेड़ जरूर लगाया जाएगा।

शुरुआत में कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया, लेकिन विष्णुपद यादव और उनके साथियों की नीयत और प्रयास अडिग रहे। इसके बाद से यह परंपरा गांव की संस्कृति का हिस्सा बन गई। अब जब भी किसी की मृत्यु होती है, शोकसभा श्मशान घाट में ही होती है और उसी दौरान एक पेड़ लगाया जाता है। जब तक मृत शरीर पूरी तरह राख में परिवर्तित न हो जाए, तब तक सब लोग वहीं शोक प्रकट करते हैं।

इस पहल का सबसे सुंदर परिणाम यह रहा कि आज गांव का श्मशान घाट एक हरा-भरा बगीचा बन चुका है, जहां पीपल, पलाश जैसे सैकड़ों पेड़ लगे हुए हैं। लकड़ियों की कभी कोई कमी नहीं होती और पर्यावरण को भी एक स्थायी योगदान मिलता है।

इतना ही नहीं, गांव में एक ‘दाह संस्कार पंजी’ भी तैयार की गई है। इसमें वर्ष 1914 से लेकर अब तक मृत व्यक्तियों की वंशावली दर्ज है — जैसे मृतक का नाम, उनके पूर्वज, पुत्र-पौत्र आदि। यह पंजी न सिर्फ परंपरा का हिस्सा है, बल्कि सरकारी दस्तावेजों के लिए प्रमाण भी बन गया है। कई बार जब बीडीओ कार्यालय से डेथ सर्टिफिकेट नहीं मिलता, तो यही पंजी पर्याप्त प्रमाण बन जाता है।

विष्णुपद यादव बताते हैं कि इस परंपरा की शुरुआत के बाद सबसे पहले उनकी अपनी मां का देहांत हुआ था और उन्होंने नियमों के अनुसार पेड़ लगाकर यह यात्रा शुरू की। अब तक गांव में सैकड़ों पेड़ लगाए जा चुके हैं और हर मृत्यु पर पूरा गांव शव यात्रा में शामिल होता है। यह परंपरा न केवल मृत्यु संस्कार को सम्मान देती है, बल्कि अगली पीढ़ी के लिए लकड़ी का भंडार भी तैयार करती है।

सनातन धर्म के अनुसार, दाह संस्कार से आत्मा को मुक्ति मिलती है और पुनर्जन्म में सहायता मिलती है। ऐसे में भलुहार गांव की यह पहल धार्मिक भावना, सामाजिक समरसता और पर्यावरण चेतना का एक अद्वितीय संगम बन चुकी है।

यह कहानी न केवल प्रेरणा देती है, बल्कि यह बताती है कि एक छोटी सी पहल कैसे पूरे समाज में बदलाव ला सकती है। भलुहार गांव अब एक आदर्श बन चुका है — मृत्यु के बाद जीवन को संजोने का, पेड़ों के रूप में पुनर्जन्म देने का।

 

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