बिहार सरकार एक ओर शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की बात करती है, वहीं दूसरी ओर जमीनी हकीकत उससे बिल्कुल उलट है. शिवहर जिले के मथुरापुर गिरी टोला में स्थित एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय आज भी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जूझ रहा है. आलम यह है कि यहां शिक्षक बारिश में छाता लेकर बच्चों को पढ़ाने को मजबूर हैं. स्कूल का कोई भवन नहीं है, शौचालय और पेयजल की भी कोई व्यवस्था नहीं है. यह स्थिति बीते **18 वर्षों** से बनी हुई है.

इस स्कूल में **चार शिक्षक** कार्यरत हैं और **करीब 60 छात्र-छात्राएं** अध्ययनरत हैं. बारिश के दिनों में शिक्षक छाता लगाकर बच्चों को पढ़ाते हैं, वहीं बच्चे भी गीली जमीन पर बैठकर किसी तरह पढ़ाई करते हैं. गर्मी हो या बरसात, यह विद्यालय केवल छांव और छतरी के सहारे चल रहा है.

**बीपीएससी TRE 3 से नियुक्त शिक्षक रोहित कुमार**, जो 15 मई 2025 को इस विद्यालय में नियुक्त हुए हैं, बताते हैं कि “विद्यालय का भवन तो दिखता ही नहीं है. बच्चों के लिए पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है. बारिश के समय हम छाते के नीचे बैठकर पढ़ाते हैं.”

विद्यालय की प्रभारी प्रधानाध्यापिका **रोशन आरा** बताती हैं कि यह विद्यालय **करीब 18 सालों से संचालित हो रहा है**, लेकिन अब तक इसकी कोई स्थायी इमारत नहीं बनी है. “हमने कई बार शिक्षा विभाग को पत्र लिखे. पूर्व जिला शिक्षा पदाधिकारी को भी समस्या बताई गई, लेकिन सिर्फ आश्वासन ही मिला.”

विद्यालय की छात्राएं भी हालात से चिंतित हैं. छात्रा **पार्वती** कहती है, “जमीन पर बैठकर पढ़ाई करनी पड़ती है. जंगल है तो सांप और कीड़े-मकोड़ों का डर बना रहता है.” वहीं **अनुष्का** बताती हैं, “स्कूल केवल नाम का है, सुविधाएं कुछ भी नहीं हैं. बारिश में पढ़ाई बहुत मुश्किल हो जाती है.”

**ग्रामीण बैजू गिरी** का कहना है कि, “हमने कई बार प्रशासन से भवन निर्माण की गुहार लगाई. जमीन भी उपलब्ध कराई, लेकिन अब तक कोई निर्माण कार्य शुरू नहीं हुआ. अधिकारी आते हैं, फोटो खींचते हैं और चले जाते हैं. सुधार कौन करेगा?”

**शिवहर के जिला शिक्षा पदाधिकारी चंदन कुमार** ने इस स्थिति की पुष्टि करते हुए कहा, “जैसे ही मुझे विद्यालय की स्थिति की जानकारी मिली, मैंने इसे समीप के एक भवन में अस्थायी रूप से स्थानांतरित करने का निर्णय लिया है. साथ ही स्थायी समाधान के लिए भी प्रयास कर रहा हूं.”

सरकार की ओर से बच्चों को पोषाहार, यूनिफॉर्म और किताबें दी जाती हैं, लेकिन भवन, शौचालय और पेयजल जैसी मूलभूत जरूरतें अब तक अधूरी हैं. ऐसे में यह सवाल खड़ा होता है कि क्या बच्चों को केवल योजनाओं के आंकड़ों में गिना जाएगा या उन्हें भी पढ़ने का अधिकार समान रूप से मिलेगा?

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