उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि प्राथमिकी व चार्जशीट में नाम नहीं होने के बावजूद ट्रायल कोर्ट बयानों व सबूतों के आधार पर अभियुक्त बना सकता है। अदालत को यह शक्ति सीआरपीसी की धारा 319 के तहत मिली है।
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने यह फैसला अभियुक्त बनाए गए व्यक्ति की एसएलपी को खारिज करते हुए दिया है। इस मामले में एससी-एसटी एक्ट, 1989 की धारा 3 (1) (आर, एस) और आईपीसी की धारा 419, 420, 323, 406 व 506 के तहत धर्मेंद्र मिश्रा के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई थी।
पीड़ितों के बयानों के आधार पर अदालत ने देखा कि इस मामले में अन्य व्यक्ति जो धर्मेंद्र का भाई था वह भी पीड़ितों को गालियां देने व जातिसूचक शब्द बोलने में शामिल था। अदालत ने धारा 319 के तहत धर्मेंद्र के भाई को भी तलब किया और ट्रायल का सामना करने का आदेश दिया। इस आदेश को एससी-एसटी एक्ट की धारा 14 ए (1) के तहत इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, लेकिन अपील खारिज कर दी गई। इसके खिलाफ अभियुक्त ने उच्चतम न्यायालय में अपील की थी।
अभियुक्त को समन करने का पूरा अधिकार
शीर्ष अदालत की पीठ ने कहा, धारा 319 के तहत अदालत को गवाह या अभियुक्त को समन करने का पूरा अधिकार है। इस मामले में अदालत ने पीड़ितों के बयानों के आधार पर दूसरे अभियुक्त को सम्मन किया है जिसमें कोई गलती नहीं हुई है। जहां तक उनके आरोपों-एफआईआर में देरी, बाहरी गवाह का नहीं होना और नामजद रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाने का मामला है तो यह ट्रायल के दौरान इन मामलों को उठा सकता है। लेकिन जहां तक धारा 319 के तहत आरोपी को समन करने का मामला है तो यह अदालत का अधिकार है। इसमें उच्चतम न्यायालय कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। यह कहते हुए कोर्ट ने एसएलपी खारिज कर दी।
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