गया जिले से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित बेलागंज प्रखंड की एक खास परंपरा पूरे क्षेत्र को अलग पहचान देती है। यहां दुर्गा पूजा के अवसर पर मां दुर्गा की मिट्टी की प्रतिमा नहीं स्थापित की जाती। यह परंपरा कोई आज की नहीं, बल्कि लगभग ढाई सौ वर्षों से चली आ रही है। बेलागंज बाजार और आसपास के करीब 25 से 30 गांवों में प्रतिमा स्थापना न होना एक आस्था और मान्यता का हिस्सा है। इन गांवों में खानेटा, पाली, अकलबीघा, वाजिदपुर, हरिगांव, सिंगोल, श्रीपुर, हसनपुर, कोरमा, अलावलपुर, बेचपुरा, वंशी बीघा, शेखपुरा, लालगंज, लक्षण बीघा और बेला परसो बेला जैसे गांव शामिल हैं।
स्थानीय दुकानदार साकेत कुमार बताते हैं कि बेलागंज और आसपास के गांवों में मान्यता है कि यदि दुर्गा प्रतिमा स्थापित की जाती है तो कोई न कोई अनहोनी अवश्य घटती है। यही वजह है कि लोग अपनी इच्छा और आस्था से मूर्ति नहीं बैठाते। उनका कहना है कि यहां मां काली स्वयं विराजमान हैं और इसी कारण मूर्ति स्थापित करने की आवश्यकता नहीं है।
काली मंदिर के पुजारी पमीत पांडे उर्फ लल्लू बाबा बताते हैं कि लगभग 200 वर्ष पूर्व बेलागंज में एक बार दुर्गा प्रतिमा स्थापित की गई थी। लेकिन प्रतिमा स्थापित करने वाले की उसी दिन मृत्यु हो गई। इसके बाद से लोगों की मान्यता और दृढ़ हो गई कि जब बेला काली मां स्वयं विराजमान हैं तो मूर्ति की स्थापना नहीं होनी चाहिए। यही नहीं, स्थानीय लोगों का कहना है कि मां काली ने सपने में संदेश देकर भी यही आशीर्वाद दिया था। हालांकि, लक्ष्मी पूजा के अवसर पर लक्ष्मी प्रतिमा स्थापित की जाती है।
बाजार के एक अन्य दुकानदार कमलेश कुमार गुप्ता कहते हैं कि दशकों पहले खनेटा और सिंगोल गांव में प्रतिमा स्थापना की गई थी। लेकिन उसके बाद आगजनी, डायरिया और अन्य घटनाएं हुईं। तभी से लोगों ने मूर्ति स्थापना को पूरी तरह त्याग दिया।
मंदिर समिति के अनुसार यह काली मंदिर द्वापर युग से जुड़ा हुआ है और इसे “मा विभुक्षा काली” के नाम से जाना जाता है। यहां मां की पूजा उनके “खाली पेट” स्वरूप में की जाती है। परंपरा है कि श्रद्धालु जब भी यहां आते हैं तो खाली हाथ नहीं आते। फूल या अन्य अर्पण सामग्री लेकर ही प्रवेश करते हैं।
मंदिर समिति के अध्यक्ष महेश पांडे बताते हैं कि मां के दरबार में जो भी सच्चे मन से प्रार्थना करता है, उसकी हर मनोकामना पूरी होती है। यही कारण है कि नवरात्रि में यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। मंगलवार और रविवार को भी यहां भीड़ उमड़ती है। आस्था इतनी गहरी है कि श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए अलग से कमेटी बनी हुई है और भीड़ नियंत्रण के लिए पुलिस बल भी तैनात रहता है।
इतिहास की मानें तो इस मंदिर की स्थापना असुर सम्राट वाणासुर की पुत्री उषा ने की थी। बाद में 1980 के दशक में बेलागंज के तत्कालीन प्रखंड विकास पदाधिकारी विजय कुमार सिंह, जो गंभीर रोग से पीड़ित थे और संतान सुख से वंचित थे, मां की शरण में आए। मां की कृपा से उनका रोग मिट गया और पुत्र की प्राप्ति भी हुई। इसके बाद उन्होंने मंदिर के विकास में बड़ा योगदान दिया।
आज भी यह मंदिर न सिर्फ बेलागंज बल्कि पूरे मगध क्षेत्र में आस्था का केंद्र है। हजारों श्रद्धालु यहां आकर अपनी मनोकामना पूरी करते हैं। सरकार और प्रशासन से अपेक्षा है कि इस ऐतिहासिक और धार्मिक स्थल के विकास के लिए और प्रयास किए जाएं ताकि श्रद्धालुओं को सुविधाएं मिल सकें।
यह परंपरा बताती है कि बेलागंज में आस्था केवल पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू से गहराई से जुड़ी हुई है। यहां मां दुर्गा की प्रतिमा भले ही न बैठती हो, लेकिन मां काली के दरबार में आस्था और विश्वास हर साल बढ़ता ही जा रहा है।
