शिबू सोरेन, जिन्हें पूरे झारखंड में सम्मानपूर्वक ‘गुरुजी’ कहा जाता है, भारतीय राजनीति के उन दुर्लभ नेताओं में से एक थे जिन्होंने जनआंदोलन की जमीन से उठकर एक पूरे राज्य के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाई। 11 जनवरी 1944 को झारखंड के दुमका जिले के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन का जीवन आदिवासी समाज के अधिकारों की लड़ाई में बीता। वे सिर्फ एक राजनेता नहीं, बल्कि झारखंड आंदोलन के अग्रदूत थे।
उनका राजनीतिक सफर तब शुरू हुआ जब उन्होंने अपने पिता की हत्या के बाद आदिवासी समुदाय के शोषण और जमीन हड़पने के मामलों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। 1970 के दशक में उन्होंने ‘संथाल परगना’ में ‘दिकू भगाओ आंदोलन’ चलाया, जिसमें बाहरी लोगों द्वारा आदिवासियों की जमीन हड़पने के खिलाफ आवाज बुलंद की गई। यहीं से उन्होंने ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा’ (JMM) की नींव रखी — एक ऐसा संगठन जो आगे चलकर झारखंड राज्य के गठन की मुख्य धुरी बना।
शिबू सोरेन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उन्होंने झारखंड के सपने को न सिर्फ जीवित रखा, बल्कि उसे हकीकत में बदलने के लिए केंद्र और राज्य की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाई। लंबे संघर्षों और आंदोलनों के बाद 15 नवंबर 2000 को झारखंड एक अलग राज्य बना, और यह उनके जीवन का सबसे बड़ा विजय क्षण था।
उन्होंने तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया (2005, 2008, और 2009)। उनके कार्यकाल में भले ही चुनौतियां अधिक थीं, लेकिन उन्होंने राज्य को पहचान और राजनीतिक स्थायित्व देने का प्रयास किया। इसके अलावा वे केंद्र सरकार में कोयला मंत्री भी रहे और आदिवासी हितों को राष्ट्रीय मंच पर उठाने में सफल रहे।
शिबू सोरेन का जीवन सादगी, संघर्ष और सिद्धांतों का प्रतीक रहा। वे सत्ता के सामने झुके बिना, जनहित को प्राथमिकता देते हुए राजनीति करते रहे। आदिवासी समाज के उत्थान के लिए उन्होंने शिक्षा, रोजगार, जल-जंगल-जमीन की रक्षा जैसे मुद्दों को हमेशा केंद्र में रखा।
उनकी राजनीति ने सिर्फ झारखंड नहीं, बल्कि पूरे देश को यह सिखाया कि एक सामान्य पृष्ठभूमि से आया व्यक्ति भी इतिहास बदल सकता है, बशर्ते उसमें जुनून और जनसेवा की भावना हो।
2025 में उनके निधन के साथ ही एक युग का अंत हो गया, लेकिन उनका संघर्ष, उनकी सोच और उनके सिद्धांत आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देते रहेंगे। राष्ट्र उन्हें एक जननेता, आंदोलनकारी और झारखंड की आत्मा के रूप में सदा याद रखेगा।
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