इजिप्ट के शर्म-अल-शेख में धरती को बचाने की मुहिम में दुनियाभर के नेताओं और वैज्ञानिकों का जमावड़ा लगा. इस महामंथन में कई चौकाने वाले खुलासे हुए हैं. ऐसे ही एक आंकड़े के मुताबिक क्लाइमेट चेंज पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के सभी देशों ने मिलकर इस साल अब तक 40.6 बिलियन टन CO2 वायुमंडल में छोड़ी है. ऐसे में वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए तत्काल बड़े और कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है. 

9 साल में आ जाएगी कयामत!

Global Carbon Budget 2022 के आंकड़ों के मुताबिक अगर मौजूदा उत्सर्जन स्तर बना रहता है, तो इस बार की 50% संभावना है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस की वार्मिंग 9 सालों में पार हो जाएगी. गौरतलब है कि पेरिस समझौते द्वारा निर्धारित ग्लोबल वार्मिंग सीमा 1.5 डिग्री सेल्सियस है, जो दुनिया को उम्मीद देती है कि यह जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभावों से बचने के लिए पर्याप्त होगी. यानी इस बात का डर बरकरार है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस की वार्मिंग 9 साल में पार हो जाएगी. इससे धरती यानी दुनिया के विनाश का खाका तैयार हो सकता है जिसकी भविष्यवाणी कभी बाबा ने की होगी.

क्या इंसानों के अस्तित्व पर मंडरा रहा खतरा?

दरअसल 9 साल में इतना तापमान बढ़ गया तो ग्लेशियर और तेजी से पिघलेंगे. प्रकति का संतुलन बिगड़ेगा. समुद्रों का जलस्तर बढ़ेगा तो धरती के कई इलाके समुद्र की चपेट में आ जाएंगे. करोड़ों लोगों पर असर पड़ेगा. इको सिस्टम प्रभावित होने से बड़े पैमाने पर लोगों की मौत हो सकती है. दरअसल पूर्व-औद्योगिक (1850-1900) स्तरों के औसत की तुलना में पृथ्वी की वैश्विक सतह के तापमान में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है और इस बढ़ोतरी को दुनिया भर में रिकॉर्ड सूखे, जंगल की आग और पाकिस्तान में आई विनाशकारी बाढ़ का कारण माना जा रहा है.

इसी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के आधे से अधिक CO2 उत्सर्जन के लिए चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ को जिम्मेदार बताया गया है. वैश्विक CO2 उत्सर्जन में भारत का योगदान 7% है. यूएन समिट में रखा गया डाटा बताता है कि चीन में 0.9% और EU में 0.8% की उत्सर्जन में अनुमानित कमी आई है, लेकिन अमेरिका में 1.5%, भारत में 6% और बाकी दुनिया में 1.7% की वृद्धि हुई है. 

मुआवजे से निकलेगा समाधान?

दुनियाभर के प्रतिनिधियों के बीच इस संवेदनशील मुद्दे पर चर्चा को लेकर सहमति बनी है कि क्या अमीर देशों के कारण जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले गरीब देशों को मुआवजा देना चाहिए. दरअसल ये पहली बार है कि COP-27 ने अपने एजेंडे में औपचारिक तौर पर जलवायु मुआवजे को शामिल किया है. ऐसे में अब एक सवाल ये भी उठ रहा है कि क्या इस मुआवजे से वाकई गरीब देशों की स्थिति में सुधार आएगा यानी वो खुद को इस लायक बना पाएंगे कि कार्बन उत्सर्जन के कारकों में प्रभावी कटौती कर सकें.

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