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सरकारी नौकरी पाना हर युवा का सपना होता है, लेकिन बिहार के गया जिले का एक गांव इस सपने को हकीकत में जी रहा है। यह गांव सिर्फ एक-दो नहीं, बल्कि सैकड़ों सरकारी कर्मचारियों का घर है। इस गांव का नाम है तिलैया, जिसे लोग अब ‘गवर्नमेंट विलेज’ या ‘गवर्नमेंट जॉब का हब’ के नाम से भी जानते हैं।

गया जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर बांके बाजार प्रखंड के अंतर्गत आने वाला यह गांव कभी नक्सल प्रभावित क्षेत्र के रूप में जाना जाता था। लेकिन आज यह गांव सरकारी नौकरी की एक ऐसी मिसाल बन चुका है, जिसकी चर्चा पूरे बिहार में होती है।

90 के दशक में आया बदलाव

तिलैया गांव की तस्वीर 1990 के दशक से बदलनी शुरू हुई। उस समय नक्सलवाद अपने चरम पर था। पास के गांव लुटवा में नक्सलियों का गढ़ था। लेकिन तिलैया गांव के युवाओं ने उस कठिन दौर में भी शिक्षा का रास्ता नहीं छोड़ा। उन्होंने ठान लिया कि उन्हें सरकारी नौकरी ही पानी है। यह जुनून ही था कि पिछले 35 वर्षों में इस गांव से करीब 300 लोग सरकारी नौकरी में जा चुके हैं।

 

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कभी नक्सलियों का था गढ़

सरकारी नौकरी की पूरी श्रृंखला

गांव में चपरासी से लेकर बिहार प्रशासनिक सेवा, जज, कैप्टन, इंजीनियर, डॉक्टर जैसे उच्च पदों तक पर लोग कार्यरत हैं। रेलवे और शिक्षा विभाग में सबसे अधिक नियुक्तियां हुई हैं। इसके अलावा पुलिस, सीआरपीएफ, सीआईएसएफ, स्वास्थ्य, बिजली और अन्य विभागों में भी गांव के युवा अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

महिलाओं की भी हिस्सेदारी

गांव के एक शिक्षक जितेंद्र कुमार के अनुसार, तिलैया से लगभग 270 बेटे और 30 बेटियां/बहुएं सरकारी सेवा में कार्यरत हैं। यह दर्शाता है कि गांव की बेटियां भी इस सफर में पीछे नहीं रहीं। जितेंद्र बताते हैं कि अगर आसपास के गांवों के उन युवाओं की गिनती की जाए जो ‘सरस्वती संघ’ की मदद से पढ़े और सरकारी नौकरी में आए, तो यह संख्या 500 के पार पहुंच जाती है।

शिक्षा को बनाया हथियार

तिलैया गांव में बदलाव की सबसे बड़ी वजह बनी शिक्षा। गांव में ‘सरस्वती संघ’ की स्थापना की गई, जो छात्रों द्वारा छात्रों के लिए चलाई जाने वाली एक अनूठी पहल है। यहां नियम बना कि कोई बच्चा मजदूरी नहीं करेगा, सभी पढ़ाई करेंगे। सीनियर छात्र अपने जूनियर को पढ़ाएंगे और पढ़ाई में मार्गदर्शन देंगे। इसका असर यह हुआ कि गांव की शिक्षा दर आज 90 प्रतिशत से भी ऊपर है।

मिसाल बना सुखदेव चौधरी का परिवार

गांव में सबसे पहले सुखदेव चौधरी ने 1966 में शिक्षक की नौकरी प्राप्त की थी। आज उनके परिवार के 39 सदस्य सरकारी सेवा में हैं। कोई डॉक्टर है, तो कोई इंजीनियर, कोई शिक्षा विभाग में अधिकारी है, तो कोई रेलवे में कार्यरत। यह परिवार आज गांव में शिक्षा और सेवा का प्रतीक बन चुका है।

गरीबी से समृद्धि तक का सफर

गांव के 70 वर्षीय राम लखन चौधरी पहले बोकारो में ठेला चलाते थे। आज उनके चारों बेटे सरकारी नौकरी में हैं – कोई इंस्पेक्टर है, कोई रेलवे इंजीनियर। उनकी बहु रेलवे में सुपरवाइजर है। वे कहते हैं, “एक समय था जब एक वक्त की रोटी भी मुश्किल से नसीब होती थी। आज घर पक्के हैं, चार पहिया गाड़ियाँ हैं, और बच्चों का भविष्य सुरक्षित है।”

बिना सुविधाओं के की पढ़ाई

65 वर्षीय हरिहर यादव कहते हैं कि जब उनके बेटे ने पढ़ाई शुरू की, तब गांव में सड़क, बिजली, स्वास्थ्य सेवा, स्कूल कुछ नहीं था। फिर भी उन्होंने बच्चों को पढ़ाया और आज उनका बेटा रक्षा मंत्रालय में कार्यरत है। उनकी पत्नी दौती देवी गर्व से कहती हैं कि “हम पढ़े लिखे नहीं, लेकिन जानवर चरा कर, खेती कर अपने बेटे को पढ़ाया। आज वो अफसर बन गया है।”

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दौती देवी 

नक्सलवाद को नहीं होने दिया हावी

गांव के एक शिक्षक शंकर प्रसाद बताते हैं कि जब 90 के दशक में नक्सलवाद अपने चरम पर था, उस समय तिलैया गांव में सिर्फ 5-7 घरों में ही सरकारी नौकरी थी। लेकिन ‘सरस्वती संघ’ की स्थापना और सामूहिक प्रयासों से शिक्षा की एक ऐसी लहर चली कि आज हर घर से एक सरकारी कर्मचारी है।

लाइब्रेरी बनी तैयारी का केंद्र

तिलैया गांव में आज ‘आजाद पुस्तकालय’ भी है, जहां छात्र सरकारी नौकरी की तैयारी करते हैं। छात्र अमित कुमार कहते हैं, “हम 12वीं के बाद से ही नौकरी की तैयारी शुरू कर देते हैं। गांव के सीनियर्स हमें गाइड करते हैं, किताबें देते हैं। सरकारी नौकरी यहां एक संस्कृति है।”

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बड़े अफसर भी हुए प्रभावित

गांव की सफलता को देखने बिहार के चर्चित आईपीएस अधिकारी विकास वैभव भी पहुंचे थे। उन्होंने पुस्तकालय और सरस्वती संघ का निरीक्षण किया और गांव की सराहना करते हुए इसे ‘प्रेरणादायक मॉडल’ बताया।

योजनाओं का भी लाभ मिला

सरकार की योजनाएं भी गांव तक पहुंची हैं। नल-जल योजना, 24 घंटे बिजली, सड़क, स्वास्थ्य सुविधा, सब कुछ अब यहां उपलब्ध है। गांव के कुछ युवा निजी कंपनियों और स्कूलों में भी कार्यरत हैं। खेती भी यहां की एक प्रमुख आजीविका बनी हुई है।

तिलैया से निकली प्रेरणा

तिलैया गांव की सफलता से प्रभावित होकर आसपास के कई गांवों ने भी शिक्षा को अपनाया है। तिलैया के सरस्वती संघ से पढ़ कर 50 से ज्यादा छात्र दूसरे गांवों से भी सरकारी नौकरी में जा चुके हैं। इस तरह तिलैया एक गांव नहीं, एक आंदोलन बन चुका है।

निष्कर्ष

तिलैया गांव सिर्फ एक गांव नहीं, बल्कि एक आदर्श है – यह बताता है कि अगर जुनून हो, तो कोई भी बाधा रास्ते में नहीं आ सकती। गरीबी, नक्सलवाद, संसाधनों की कमी – सब कुछ को पीछे छोड़कर तिलैया ने जो रास्ता बनाया है, वह आज न सिर्फ गया जिले, बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणा बन चुका है।


“तिलैया की कहानी यह बताती है कि कलम की ताकत बंदूक से कहीं ज्यादा होती है।”

 

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By admin

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