बिहार के गया जिले के घने जंगलों में बसा **धनगाई गांव** कभी नक्सलवाद का पर्याय था। यह वह इलाका है, जहां कभी हर घर से नक्सलियों के लिए खाना बनता था, हर खेत में उनके लिए रास्ते बनते थे, और हर पंचायत में उनकी ‘जन अदालतें’ लगती थीं। आज, दशकों बाद, यही धनगाई धीरे-धीरे उस लाल आतंक की छाया से बाहर आने की कोशिश कर रहा है।
राज्य की राजधानी पटना से करीब **150 किलोमीटर दक्षिण** में स्थित यह गांव बाराचट्टी विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जहां इस बार दूसरे चरण में **11 नवंबर** को मतदान होना है। यह वही इलाका है, जहां कभी आज़ादी और गणतंत्र दिवस पर काला झंडा फहराना आम बात थी, लेकिन अब गांव के स्कूलों में तिरंगा लहराने की तैयारी हो रही है।
लाल आतंक की यादें अब भी ताजा
धनगाई के 60 वर्षीय बुजुर्ग **तुलसी साओ** आज भी उन दिनों को नहीं भूल पाए हैं, जब नक्सली पहाड़ियों से उतरकर झुंड में गांव में आते थे। वे कहते हैं,
*“वे (नक्सली) अभी भी पहाड़ियों में हैं। हम नहीं जानते कि वे क्या सोच रहे हैं या कर रहे हैं, लेकिन वे वहां हैं। हम उनसे कभी कुछ नहीं पूछते, न ही हमें उनकी गतिविधियों में कोई दिलचस्पी है।”*
इसी गांव की **लखमनी देवी**, जो रसोई और खेत दोनों संभालती हैं, बताती हैं,
*“हर घर में एक व्यक्ति (नक्सली) के लिए खाना बनता था। वे खाते थे और चले जाते थे। कई बार पुलिस मुखबिरी के शक में लोगों को उठा ले जाते थे।”*
धनगाई के स्कूल कभी बच्चों की पढ़ाई की जगह नक्सलियों की जन अदालतों का मंच बन जाते थे। यहां मौत के फरमान सुनाए जाते थे, और ग्रामीण बिना कुछ बोले उन आदेशों का पालन करते थे।
‘जन अदालतों’ की मजबूरी और भय
गांव के सम्मानित **सीपीआई (एमएल)** नेता **श्याम बिहारी सिंह** बताते हैं कि उन्हें खुद नक्सलियों की जन अदालतों की अध्यक्षता के लिए मजबूर किया गया था।
वह कहते हैं,
*“मैं भूल गया हूं कि मैंने अपनी इच्छा के विरुद्ध कितनी अदालतों की अध्यक्षता की थी। ‘आरोपियों’ को मौत सहित कई सजाएं दी गईं। मैंने विरोध किया, लेकिन भारी हथियारों से लैस नक्सलियों को देखकर कोई कुछ नहीं बोलता था।”*
श्याम सिंह बताते हैं कि कई बार निर्दोष लोगों को सजा मिलती थी, और जो असली दोषी थे, वे नक्सली गिरोहों के संरक्षण में बच जाते थे।
उनके अनुसार, अब परिस्थितियां बहुत बदल चुकी हैं — *“नक्सलवाद अब धनगाई का मुद्दा नहीं रहा। अब कोई खुलकर हथियार लेकर नहीं घूमता। लोग शिक्षा और रोजगार की बात करते हैं।”*
नक्सल विचारधारा से जेल तक: विजय कुमार आर्य की कहानी
श्याम सिंह का ज़िक्र **विजय कुमार आर्य** का नाम लिए बिना अधूरा है — वही शख्स जिसने एक समय बिहार-झारखंड की नक्सली गतिविधियों में जान फूंकी थी।
**64 वर्षीय विजय कुमार आर्य**, जो इकोनॉमिक्स में पोस्ट ग्रेजुएट और पूर्व प्रोफेसर थे, **माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया (MCCI)** से जुड़े और बाद में **सीपीआई (माओवादी)** के शीर्ष नेताओं में शामिल हुए।
2022 में **रोहतास जिले के समाहुता गांव** से गिरफ्तारी के बाद वह अब **पटना के बेउर जेल** में बंद हैं। उन पर बिहार, झारखंड, यूपी और आंध्र प्रदेश में हिंसा और विध्वंस के 14 से अधिक मामले दर्ज हैं।
श्याम सिंह आर्य की विचारधारा की प्रशंसा तो करते हैं, लेकिन हथियार उठाने के खिलाफ हैं।
वह कहते हैं, *“उनके लिए (नक्सलियों के लिए) सबसे अच्छा यही होगा कि वे आत्मसमर्पण करें। हथियारों से समाज नहीं बदलेगा, बल्कि और टूटेगा।”*
आज का धनगाई — डर से उम्मीद तक का सफर
24 वर्षीय ग्रेजुएट **अरविंद कुमार** बताते हैं कि अब गांव में माहौल काफी बदला है।
*“करीब छह साल पहले तक हम स्वतंत्रता दिवस नहीं मना पाते थे। अब पुलिस कैंप बना है, स्कूलों में बच्चे पढ़ रहे हैं, और बाजारों में लोग देर रात तक रहते हैं।”*
गांव के **हायर सेकेंडरी स्कूल** के खंडहर आज भी नक्सली आतंक की याद दिलाते हैं। कभी यहां विस्फोट हुआ था, क्योंकि यह मतदान केंद्र था। अब उसी जगह नया भवन बन रहा है — यह इस बात का प्रतीक है कि विकास धीरे-धीरे लौट रहा है।
चुनाव और लोकतंत्र की वापसी
पहले धनगाई जैसे गांवों में मतदान दोपहर 3 बजे ही खत्म हो जाता था, क्योंकि सुरक्षा बल शाम होने से पहले कर्मचारियों को निकाल लेते थे। अब हालात कुछ हद तक सामान्य हैं।
**चुनाव आयोग** ने इस बार घोषणा की है कि बाराचट्टी के 36 मतदान केंद्रों पर सुबह 7 बजे से शाम 4 बजे तक वोटिंग होगी।
गृह मंत्रालय के अनुसार, अब बिहार में कोई भी जिला “नक्सल प्रभावित” श्रेणी में नहीं है।
**मगध रेंज के आईजी क्षत्रनील सिंह** बताते हैं,
*“हाल ही में कोई नक्सली हिंसा नहीं हुई है, लेकिन हम कोई जोखिम नहीं उठा रहे हैं। हर विधानसभा क्षेत्र में CAPF की दो कंपनियां तैनात की गई हैं और फ्लैग मार्च किया जा रहा है।”*
विकास की उम्मीदें और राजनीतिक हकीकत
धनगाई गांव बाराचट्टी विधानसभा क्षेत्र में आता है, जो **अनुसूचित जाति (SC)** के लिए आरक्षित है।
यहां की वर्तमान विधायक **ज्योति देवी** (हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा – सेक्युलर) एनडीए की ओर से फिर मैदान में हैं। ग्रामीणों का आरोप है कि वह पिछले पांच साल में कभी गांव नहीं आईं।
एक ग्रामीण ने व्यंग्य में कहा, *“वोट के समय आते हैं, वादा करते हैं, और फिर पांच साल गायब।”*
जब ईटीवी भारत ने यह सवाल उनसे पूछा, तो ज्योति देवी ने कहा,
*“मैं कई बार उस इलाके में गई हूं। मेरे ‘बड़े साहब’ जीतन राम मांझी भी वहां गए थे। कुछ लोग हमेशा आलोचना करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि इलाके में बहुत काम हुआ है।”*
उन्होंने दावा किया कि अगर दोबारा जीतीं, तो गांव में सड़कों और छोटे पुलों के निर्माण पर ध्यान देंगी।
राजनीति और समाज के बीच फंसा गांव
धनगाई में अब नक्सली तो नहीं, लेकिन अविश्वास की छाया अब भी है।
बुजुर्ग तुलसी साओ कहते हैं, *“हम वोट देंगे अगर मौका मिला, लेकिन हमें इससे क्या मिलेगा? विधायक कभी आता नहीं।”*
उनके शब्द गांव के सैकड़ों लोगों की निराशा को बयां करते हैं।
गांव का माहौल चुनाव से कुछ ही दिन पहले भी सुस्त है। कुछ लोग कहते हैं कि डर गया नहीं है, बस दब गया है। वहीं युवा वर्ग चाहता है कि यह गांव अब अपनी पहचान बदल दे।
**अरविंद** जैसे युवाओं को उम्मीद है कि इस बार वे अपने बच्चों को “बिना डर के” स्कूल भेज सकेंगे।
उनका कहना है, *“हमारा गांव अब वही नहीं है। हमने बहुत कुछ खोया है, अब कुछ पाने की बारी है।”*
नया सवेरा, पुरानी परछाइयाँ
धनगाई का इतिहास खून, डर और संघर्ष से भरा रहा है। लेकिन आज यह गांव एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां से भविष्य की नई शुरुआत संभव है।
यहां के लोग अब शांति चाहते हैं, विकास चाहते हैं — और सबसे ज्यादा, वे चाहते हैं कि उन्हें “नक्सली गांव” के नाम से नहीं जाना जाए।
चुनाव के इस मौसम में जब पूरे बिहार में सियासी नारों की गूंज है, तब धनगाई के लोग बस इतना कहना चाहते हैं —
“हमारे बच्चों को किताबें चाहिए, बंदूकें नहीं। हमें सड़के चाहिए, नारे नहीं।”
यह गांव आज भी बिहार की उस कहानी का प्रतीक है, जो भय से उम्मीद, और हिंसा से विकास की ओर बढ़ रही है।
निष्कर्ष:
धनगाई की यह कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं, बल्कि पूरे उस भूगोल की है जो कभी नक्सलवाद की लाल लपटों में जलता था। अब वही इलाका लोकतंत्र की लौ में रोशनी ढूंढ रहा है।
भले ही बदलाव की रफ्तार धीमी हो, लेकिन गांव की आवाज़ साफ है —
“अब डर नहीं, विकास चाहिए।”
