बिहार के कोसी क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत और इतिहास को संरक्षित करने की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल शुरू हुई है। इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट (IHD) ने पहली बार दिल्ली मुख्यालय से बाहर निकलकर सहरसा, मधेपुरा और सुपौल जिलों में स्थानीय इतिहास, सांस्कृतिक परंपराओं और लोक मान्यताओं के दस्तावेजीकरण का कार्य प्रारंभ किया है। यह पहल न केवल अकादमिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक समावेश और सांस्कृतिक चेतना के पुनर्जागरण की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम के रूप में भी देखी जा रही है।
यह पहली बार है जब 1965 के बाद कोसी अंचल की सांस्कृतिक पहचान को लेकर इतने संगठित और गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं। इस परियोजना की पहली आधिकारिक क्षेत्रीय बैठक 27 मई को संपन्न हुई, जिसमें विभिन्न विषय विशेषज्ञों, प्रशासनिक अधिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। इसके बाद 12 जून को सहरसा के जिलाधिकारी दीपेश कुमार के नेतृत्व में इस परियोजना की पहली फील्ड मीटिंग भी आयोजित की गई।
इस दस्तावेजीकरण अभियान में लगभग 30 सदस्यीय टीम कार्य कर रही है, जिसमें कुछ वर्तमान में कार्यरत IAS अधिकारी भी शामिल हैं। यह टीम गांव-गांव जाकर स्थानीय धार्मिक स्थलों, पारंपरिक रीति-रिवाजों, लोकगीतों, लोककथाओं और विशेष रूप से कोसी नदी से जुड़ी सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं को एक संवादात्मक प्रक्रिया के जरिए संकलित कर रही है।
इस कार्य में आधुनिक शोध पद्धतियों और डिजिटल तकनीकों का भी सहारा लिया जा रहा है, ताकि संकलित सामग्री को न केवल संग्रहित किया जा सके, बल्कि उसे आगे की पीढ़ियों के लिए संरक्षित और सुलभ भी बनाया जा सके। टीम स्थानीय बुजुर्गों, परंपरागत गायक-कलाकारों, पुरानी पांडुलिपियों के संरक्षक परिवारों और धार्मिक संस्थानों से सीधा संवाद कर रही है। उनका उद्देश्य है कि केवल किताबों में ही नहीं, बल्कि मौखिक इतिहास और सांस्कृतिक स्मृतियों को भी समाहित किया जाए।
यह पहल सिर्फ एक अकादमिक अध्ययन नहीं है, बल्कि यह स्थानीय समुदायों की आत्मा से जुड़ी है। इसमें हर वर्ग, धर्म और समुदाय की सहभागिता सुनिश्चित की जा रही है। मुस्लिम, हिंदू, दलित, पिछड़ा, आदिवासी – सभी समुदायों के अनुभव और परंपराओं को बराबरी से शामिल किया जा रहा है। यही कारण है कि इस दस्तावेजीकरण को सामाजिक समावेश की एक अनूठी मिसाल भी माना जा रहा है।
बिहार सरकार ने इस ऐतिहासिक कार्य की जिम्मेदारी अपने राजस्व विभाग को सौंपी है, जो कि भूमि और स्थानीय प्रशासनिक ढांचे से जुड़ा विभाग होने के कारण क्षेत्रीय जानकारियों को बेहतर तरीके से जुटा सकता है। राजस्व विभाग की मदद से टीम को गांव स्तर पर सहयोग, अभिलेख, और स्थानीय संसाधनों तक पहुंच सुनिश्चित हो रही है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह परियोजना आने वाले समय में बिहार के स्थानीय इतिहास लेखन को एक नई दिशा देने में सक्षम होगी। अभी तक जो इतिहास मुख्य रूप से शासकों, युद्धों या राजधानी केंद्रित दस्तावेजों के माध्यम से लिखा गया है, वह अब आम लोगों की परंपराओं, लोककथाओं और क्षेत्रीय आस्थाओं पर आधारित अधिक समावेशी इतिहास में बदल सकता है।
सहरसा, मधेपुरा और सुपौल – यह तीन जिले, जिन्हें ‘कोसी क्षेत्र’ कहा जाता है, भले ही प्राकृतिक आपदाओं और बाढ़ के लिए जाने जाते हों, लेकिन यहां की संस्कृति, लोक कलाएं और परंपराएं बेहद समृद्ध रही हैं। वर्षों तक यह क्षेत्र इतिहास के हाशिये पर रहा, लेकिन अब यह दस्तावेजीकरण उस उपेक्षा को समाप्त करने का अवसर बन सकता है।
इस अनोखी परियोजना के माध्यम से न सिर्फ इतिहास को संजोया जाएगा, बल्कि कोसी क्षेत्र की सांस्कृतिक चेतना को फिर से जीवित करने का भी प्रयास किया जा रहा है। आने वाले महीनों में जैसे-जैसे यह अभियान आगे बढ़ेगा, इसकी रिपोर्ट, पुस्तकें और डिजिटल आर्काइव्स के रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत की जाएंगी, जिससे पूरे देश और दुनिया को कोसी की आत्मा से रूबरू होने का अवसर मिलेगा।
यह पहल केवल इतिहास को सहेजने का प्रयास नहीं है, यह अपने अस्तित्व, अपनी पहचान और अपनी जड़ों को फिर से जानने और संजोने की एक यात्रा है – एक यात्रा जो कोसी की धारा के साथ बहते इतिहास को स्थायी आकार देने जा रही है।
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