उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले के पिलखुवा थाना क्षेत्र में एक दिल दहला देने वाली घटना सामने आई है, जहां पैसे के अभाव में एक मजदूर की मासूम बेटी को इलाज नहीं मिल सका और उसने अस्पताल के गेट पर ही अपने पिता की गोद में तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। यह मामला जितना भावुक करने वाला है, उतना ही सवालों से भी घिरा है – कि क्या आज भी गरीब की जान की कोई कीमत नहीं?
यह घटना पिलखुवा के हाईवे स्थित **सरस्वती मेडिकल कॉलेज** से जुड़ी है। मूलरूप से बिहार के फतेहपुर जनपद के जगतपुर कठियार निवासी अनवर पिछले करीब सात महीनों से सरस्वती मेडिकल कॉलेज परिसर में ही मजदूरी कर रहे हैं। वे एक ठेकेदार के तहत राजमिस्त्री का कार्य करते हैं जबकि उनकी पत्नी मौसमी बेलदारी का काम करती हैं। दोनों अपने तीन बच्चों के साथ वहीं पास के एक अस्थायी झोपड़ी में रहते हैं।
शुक्रवार की रात अनवर की 5 वर्षीय बेटी **अमरीन** की तबीयत अचानक खराब हो गई। बच्ची को लगातार उल्टियां होने लगीं। परेशान माता-पिता उसे तुरंत पास ही के सरस्वती मेडिकल कॉलेज लेकर भागे। लेकिन वहां उन्हें उम्मीद की जगह निराशा मिली।
अस्पताल स्टाफ ने इलाज शुरू करने से पहले **20 हजार रुपये** जमा कराने की शर्त रख दी। अनवर ने गिड़गिड़ाते हुए इलाज की गुहार लगाई और रुपये का इंतजाम करने की बात कही, लेकिन अस्पताल के कर्मचारियों ने एक न सुनी। उन्होंने अनवर को **सरकारी अस्पताल** में जाने की सलाह देकर वापस लौटा दिया।
इस दौरान मासूम बच्ची की हालत बिगड़ती रही और कुछ ही देर में उसने अपने पिता की गोद में दम तोड़ दिया। बेटी की मौत से टूट चुके अनवर और उनकी पत्नी बेसुध हो गए। अस्पताल के कर्मचारियों ने फिर भी कोई मानवीयता नहीं दिखाई।
सुबह होते-होते यह खबर आसपास फैल गई, जिससे लोगों में भारी आक्रोश पैदा हो गया। कुछ समय बाद पुलिस भी मौके पर पहुंची और पीड़ित परिवार से औपचारिक पूछताछ कर वापस लौट गई। वहीं अस्पताल प्रबंधन किसी भी तरह की प्रतिक्रिया देने से बचता नजर आया। उन्होंने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि इस विषय में **सोमवार को लिखित स्पष्टीकरण** दिया जाएगा क्योंकि अभी कोई “जिम्मेदार अधिकारी” मौजूद नहीं है।
लोगों ने बताया कि अनवर के पास **आयुष्मान भारत कार्ड** भी नहीं था, जिसकी वजह से अस्पताल ने किसी भी तरह की सहायता से साफ इनकार कर दिया। अगर उनके पास यह कार्ड होता तो शायद मासूम अमरीन को इलाज मिल पाता।
इस हृदयविदारक घटना से एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि **जो मजदूर महीनों से उसी अस्पताल के निर्माण में पसीना बहा रहा था**, उसे इलाज की सुविधा क्यों नहीं दी गई? क्या अस्पताल का नैतिक कर्तव्य नहीं बनता था कि वह तात्कालिक रूप से इलाज शुरू कर देता और बाद में भुगतान की व्यवस्था करता?
स्थानीय लोगों का गुस्सा अस्पताल प्रबंधन की संवेदनहीनता को लेकर और बढ़ गया है। सबका यही कहना है कि अगर बच्ची को समय पर प्राथमिक उपचार मिल गया होता, तो उसकी जान बचाई जा सकती थी।
मामले पर हापुड़ के सीएमओ **डॉ. सुनील कुमार त्यागी** ने कहा है कि उन्हें इस घटना की जानकारी मिली है, लेकिन अब तक इस संबंध में **कोई आधिकारिक शिकायत** नहीं आई है। अगर पीड़ित शिकायत करता है, तो मामले की जांच कर उचित कार्रवाई की जाएगी।
बच्ची के शव को लेकर अनवर और उनका परिवार शनिवार सुबह करीब 10 बजे बिहार लौट गया। अब यह मामला प्रशासन और सरकार के संवेदनशीलता की भी परीक्षा ले रहा है। क्या पीड़ित परिवार को न्याय मिलेगा? क्या अस्पताल की जवाबदेही तय होगी? और सबसे बड़ा सवाल – क्या अब भी गरीब की जान यूं ही जाती रहेगी?
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